ये परिंदा अभी कफ़स में हैं।

ये परिंदा अभी कफ़स में हैं।
गुल मगर अब भी कशमकश में है।।
वो लहू देख मुस्कुराता है
फितरतें कुछ अजीब उसमे हैं।।
अपनी आदत बदल नहीं पाता
रोज खाता हज़ार कसमें हैं।।
ऐब दौलत में कुछ नहीं होता
ऐब इंसान की हवस में है।।
हौसला है तो इक भरोसा है
कामयाबी हमारे बस में है।।
कू-ए-महबूब से जो आती थीं
खुशबूयें आज भी नफ़स में हैं।।
राह सदियों तेरी निहारी है
तू भले सोलहवें बरस में हैं।।
इक नज़र भर ही उसको देखा है
और महफ़िल तभी से गश में है।।

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा