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Showing posts from February, 2024
 मैं अपने छोटे होने की हद तक छोटा हूँ। ख़ुद्दारी में आसमान जितना ही ऊँचा हूँ।। बेंत लचक कर नमन किया करता है नदिया को नदी और नीचे बहकर दिखलाती दुनिया को मैं भी नदिया की धारा सा बहता रहता हूँ।। नभ जितने ऊँचे होकर भी नग  हैं धरती पर सागर को गहराई पर है दम्भ न रत्ती भर मैं भी जो हूँ वह रहने की कोशिश करता हूँ।। मेरा हासिल उनके हासिल यह तुलना ही बेमानी है वे सम्पन्न विरासत से ,गुरबत अपनी रजधानी है वे कुछ खोने से डरते हैं मैं जीवन जीता हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 नौजवानों को ग़ज़ल क्या मालूम। इन दीवानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। सारे  ज़रदार  यहीं  समझे   हैं इन किसानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। धूप में तप के ग़ज़ल निखरी है सायबानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। किनसे फरियादे-मेहर करते हो बदगुमानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। दर्द  को  सिर्फ़  ज़मीं  पढ़ती  है आसमानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। इसमें इमानो-वफ़ा भी चहिए बेइमानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। इश्क़ की हद है असल हुस्ने ग़ज़ल शादमानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। साफ लफ़्ज़ों में बगावत है ग़ज़ल हुक्मरानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। सुरेश साहनी, कानपुर
 यदि युद्ध हुआ तब  मैं कविता नहीं लिखूंगा तब मेरे हाथ  कलम तो नहीं चलाएंगे तब मैं दिन रात हथियार बनाऊंगा और यदि आदेश मिला तब सीमा पर भी जाऊंगा क्योंकि युद्ध के समय  मैं कवि नहीं सैनिक हूँ और सैनिक ही रहना चाहूंगा।
 उसकी आँखों मे सुरमई मौसम। उसके गालों पे चम्पई मौसम।। उसकी चुनरी है जबकि बासन्ती उसका चलना है फागुनी मौसम।। राह को जोहती निगाहों में  डबडबाता है सावनी मौसम।।
 हम चलें तो कारवां लेकर चलें। साथ अपने आसमां लेकर चलें।। उँगलियाँ उठने से बेहतर है कि हम साथ जख़्मों के निशां लेकर चलें।। कल ख़ुदा पूछे तो हम बतला सकें कुछ तो आमाले-ज़हाँ लेकर चलें।। इस ज़हाँ में पुरसुकूँ कुछ भी नहीं तुम कहो तुमको कहाँ लेकर चलें।। हमजुबाँ समझे न मेरी बात तो साथ हम कितनी ज़ुबाँ लेकर चलें।।  बहरे कानों से करें फरियाद जब क्यों न कुछ संगे-फुगां लेकर चले।। मौत आनी है तो आ ही जायेगी लाख रहबर पासवां लेकर चलें।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 प्यार के कुछ पल मिले तो रात में। फूल मुरझाये खिले तो रात में।। वो सुबह से शाम तक संग में रही फिर भी हम उससे मिले तो रात में।। चौका बासन भजन भोजन सब दिए कुछ किये शिकवे गिले तो रात में।। फागुनी मस्ती बही भर दोपहर अधर पत्तों से हिले तो रात में।। द्वार  आँगन कोठरी से देहरी कुछ शिथिल पड़ते किले तो रात में सुरेशसाहनी, कानपुर
 बेशक ऐसा मंजर होगा। सबकी आंखों में डर होगा।। फिर उसके अहबाब बढ़े हैं फिर ईसा सूली पर होगा।। उम्मीदें वो भी सराय में इक दिन तो अपना घर होगा।। दौलत होगी चैन न होगा नींद न होगी बिस्तर होगा।। बेटा हो जब आप बराबर बेटा बनना बेहतर होगा।। प्रेम गली कितनी संकरी है अंदाज़ा तो चलकर होगा।। पत्थर कब सुनता है प्यारे ऐसा ही वो ईश्वर होगा।। दबे पाँव  आती है चलकर मौत को भी कोई डर होगा।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 फाग चलत बा फागुन में रंग जमत  बा फागुन में देवरो दूसर खोजत बा घात करत बा फागुन में भैया बाड़े दुबई में गांव बहत बा फागुन में तुहउँ अईबू सावन ले देहिं जरत बा फागुन में अमवो तक बौराईल बा सब गमकत बा फागुन में रउरे अइसे ताकी जिन मन बहकत बा फागुन में देहिं थकल मन मातल बा भर असकत बा फागुन में।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 होरी है मस्तन की होरी होरी है निरे अलमस्तन की  होरी सब रँगन की होरी  होरी है अबीर गुलालन की  होरी है पढ़े निपढ़े सब की होरी है अदीब गँवारन की होरी नहिं सन्त असन्तन की होरी है निरे होरियारन की होरी है तो मधुबन है हर सूं होरी है तो यौवन है हर सूं यौवन है जो प्रेम में भीगा हुआ तब होरी है फागुन है हर सू होरी है तो गोकुल धाम है मन ब्रज है वृंदावन है हर सूं होरी है तो राधा दिखे हर सुं होरी है  तो मोहन है हर सूं।। बड़े बूढ़े लगे लरिका जइसे अरु जेठ निगाह से घात करे है अब सास ननद परिहास करे अरु देवर काम को मात करे है यह फागुन जेठ समान लगे अरु रंग की आग अघात लगे है अब होरी कहाँ मोहे भाए सखी पिय जाने कहाँ दिन रात करे है सुरेश साहनी, कानपुर
 बेख़ुदी के लाख दर इज़ाद कर। भूलने की हद तलक तो याद कर।। ग़म बज़ा है आशियाँ ना बन सका इस वज़ह से जीस्त मत बर्बाद कर।। दौलतों के कान होते ही नही  लाख रो ले चीख ले फ़रियाद कर।। बागवां था फिर भी गुलची हो गया और गिर कर ख़ुद को मत सैयाद कर।।
 क्या है दिल की गिरह को खोलो तो। तल्खियां हैं क़ुबूल बोलो तो।। फिर तअल्लुक़ भी तर्क कर लेना दो घड़ी मेरे पास बैठो तो।।साहनी
 ज़माने भर का वसील होना। है जुर्म अपना क़तील होना।। हमारी आदत सी पड़ गयी है सबाब करना ज़लील होना।। तमाम रिंदों की इक वज़ह है तुम्हारी आँखों का झील होना।। के दौरे हाज़िर में लाज़मी है गुलों की ख़ातिर फ़सील होना।। तमाम अपनों को खल रहा है जनाजा अपना तवील होना।। जिन्हें चुना उनको दोष क्यों दें हमें पड़ेगा कफ़ील होना।। सुरेश साहनी,कानपुर वसील/ मित्र या साथ निभाने वाले क़तील/जिसका क़त्ल हुआ हो फ़सील/ चारदीवारी, सुरक्षा घेरा तवील/लम्बा होना कफ़ील/ दायित्व लेने वाला, जिम्मेदार
 प्यास के हम अगर समंदर हैं। आप दरिया हैं या की सागर हैं।। लज्जते-तिश्नगी तो रखनी है क्या हुआ हम अगर कलन्दर हैं।।
 बीमा डूबेगा बैंक डूबेंगे। इसमें ज़रदार ख़ाक़ डूबेंगे।। अब बरहनों  का कुछ न बिगड़ेगा हम गरेबान - चाक डूबेंगे।।साहनी
 ऐसा नहीं कि आपसे रिश्ता नहीं रहा। पर रोकने का भी कोई रस्ता नहीं रहा।। जाना है हर किसी को यहां एक मियाद पर राजा भी कब रहे जो कारिंदा नहीं रहा।।
 दिल कहता है उसने सैय्या बोला है। कान कहे है उसने भइया बोला है उसके बच्चे जबसे मामा बोले हैं हृदय टूटकर दैय्या दैय्या बोला है।।साहनी
 आप मेरी पसंद थे वरना। और भी दर बुलंद थे वरना।। यूँ मसावात अपने हक़ में थे यां कमानो-कमंद थे वरना।। मेरे जैसे हज़ार मत कहिए आप जैसे भी चंद थे वरना।। ख़ैर करिये कि हमनवां हैं हम अनगिनत बा-ग़ज़न्द थे वरना।। सिर्फ़ रिश्ता था आपसे दिल का और भी दर्द-मन्द थे वरना।। थी गज़ाला के साथ ख्वाहिश अस्तबल में समन्द थे वरना।। आपके इश्क़ में हुए रुसवा साहनी अर्जुमंद थे वरना।। मसावात/समीकरण हमनवां/सुख दुख में सहभागी, समान विचार वाले  बा-ग़ज़न्द/ दुखी  कमानो-कमन्द/ धनुष और रस्सी का फंदा दर्दमंद/ सहानुभूति रखने वाले ग़ज़ाला/ हिरनी, सुन्दर स्त्री समन्द/बादामी घोड़ा अर्जुमंद/ सम्मानित, प्रतिष्ठित सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जीवन की संध्या बेला में जब मुक्ति मिले दायित्वों से सम्भव हो मुझे पत्र लिखना स्मृति से पूरित तत्वों से
 ख़ुश्क हैं होठ फिर भी प्यास नहीं। हम हैं तन्हा मगर उदास नहीं।। दिल ही टूटा है हम सलामत हैं सिर्फ़ बेख़ुद हैं बदहवास नहीं।।साहनी
 आज रूठे हैं कल मना लेंगे। फिर से मुझको गले लगा लेंगे।। लाख मिट जाये देह की दूरी दिल से दूरी भी क्या मिटा लेंगे।।साहनी
 क्या  वो मज़बूरी में फंसकर करते हैं। अरे नहीं वो ऐसा अक्सर करते हैं।। तुम क्या समझे दल बदला है जनहित में जो उनकी ख़ातिर हो हितकर करते हैं।।साहनी
 यार ये गन्दुमी रहे न रहे। फिर दृगों में नमी रहे न् रहे ।। अब न ढुलकी अधर की गागर तो प्यास फिर शबनमी रहे न रहे।।
 अब कभी उनसे मुलाकात नहीं होनी है। हो भी जाये तो कोई बात नहीं होनी है।। हाय वो पहली मुलाकात अमावस वाली अब कभी उतनी हसीं रात नहीं होनी है।।
 मुर्ग बिचारे मर गए दे दे कर के बांग। लोग कहाँ से जागते कूये में थी भांग।।साहनी
 आप नत्थू के लख्त हैं शायद।  हो न हो अंधभक्त हैं शायद।। पंछियों की भी जात पूछे है आप वो ही दरख़्त हैं शायद।। सिर तवारीख पे जो धुनते हैं दौरे हाज़िर वो वक़्त हैं शायद।। आप भी थे तमाशबीनों में आप मौकापरस्त हैं शायद।। मुल्क की फ़िक्र कौन करता है सब सियासत में मस्त हैं शायद।। आज् कोई पुलिस न पकड़ेगी आज हाकिम की गश्त है शायद।। सुरेश साहनी
 हद है कितना झूठ पचायें राजा  जी। सच बोलें तो जीभ कटायें  राजा जी।। सच बोला तो आप पशेमां ही होंगे अच्छा है मुँह ना खुलवायें राजा जी।। राजा नँगा है यह बतलाने वाला बच्चा एक कहाँ से लायें राजा जी।।साहनी
 श्याम छलिया समझ लिया है क्या। ख़ुद को राधा समझ लिया है क्या।। चाँद कहते हो ख़ुद को जायज है मुझको अदना समझ लिया है क्या।। मोल बिन मिल गया हूँ इतने से कोई सौदा समझ लिया है क्या।। क्या कहा फूँक कर उड़ा दोगे शुष्क पत्ता समझ लिया है क्या।। इतना अधिकार क्यों जताते हो सच मे अपना समझ लिया है क्या।। फिर मैं हर बार क्यों कसम खाऊं मुझको झूठा समझ लिया है क्या।। मैं न टूटूंगा  सिर्फ़ छूने से  इक खिलौना समझ लिया है क्या।। तुम तो पत्थर हो मान लेता हूँ मुझको शीशा समझ लिया है क्या।। साहनी खुश है अपने जीवन से तुमने तन्हा समझ लिया है क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
 शह तो मिलती है मगर मात से बच जाते हैं। तब ये लगता है करामात से बच जाते हैं।। बच गए आप जो बेलन से तो हैं फुर्तीले फिट हैं जो अहलिया की लात से बच जाते हैं।। घर अगर देर से जाना है नशा कर लीजै इस तरह आप सवालात से बच जाते हैं।।
 मन कुहुकने लगा है फागुन में दिल धड़कने लगा है फागुन में आम बौरा गए से दिखते हैं तन महकने लगा है फागुन में।।
 कुछ न् कुछ तो वो हटा  लगता है। उसको हंसना भी बुरा लगता है।। बददुआ भी नहीं देता मुझको  मुझसे वो सच मे ख़फ़ा लगता है।।
 हमें भी प्यार आना चाहिए था। तनिक व्यवहार आना चाहिए था।। बिके जो मोल बिन भंगार में हैं हमें बाज़ार आना चाहिए था।। चुकाते कर्ज क्यों कर लोग हिस्सा- सभी को चार आना चाहिए था। ख़ुदा के दर से हम यूँ ही न् लौटे उसे भी द्वार आना चाहिए था।। नहीं आते मगर फिर भी मनाने तुम्हें इक बार आना चाहिए था।।साहनी
 जंगलीपन नहीं गया अपना हमने जंगल तो काट डाले हैं।।
 ईडी सीबीआई से या फिर इनकमटैक्स। लाख दबा लो आज कल तुम भी होगे एक्स।।साहनी
 ईडी सीबीआई से या फिर इनकमटैक्स। लाख दबा लो आज कल तुम भी होंगे एक्स।। तुम भी होंगे एक्स नहीं होगा जब शासन। तब तुम दोगे नैतिकता पर कोरे भाषण।। तब तुम पर भी बना करेगी एबी सीडी। छापा मारेगी  तब तुम पर भी यह ईडी।। साहनी
 अगर हम लड़ रहे हैं तीरगी से। उन्हें परहेज क्यों है रोशनी से।। कहीं रह लेंगे हम अल्लाह वाले यतीमों को गरज़ है आरफी से।। तख़य्युल में है जिसके धूप यारों कहीं वो जल न् जाये चाँदनी से।। उन्हें कह दो न मक़तल से डराएं हम आते हैं मुहब्बत की गली से।। भले मुन्सिफ़ कचहरी झूठ की थी जो हम हारे तो सच की खामुशी से।। तो जाए घर बना ले आसमां पर अगर डरने लगा है बन्दगी से।। क़मर-ओ-शम्स की यारी से बचना तआरुफ़ है अगर आवारगी से।। छुपे रहते कभी रसवा न होते जो हम खुल के न् मिलते हर किसी से।। ग़ज़लगो मुत्तफ़िक़ हैं आज इस पर बचाना है अदब को साहनी से।। सुरेश साहनी, कानपुर
 फिर मुहब्बत ने नैन खोले हैं। फिर उम्मीदों ने पंख तोले हैं।। चाँद झूमा है चांदनी ने भी  शादमानी के रंग घोले हैं।।
 कितना चंचल ये मन का कागा है। प्यार पाकर भी ये अभागा है।। जबकि मैं सारी रात सोया हूँ रात भर मुझमें कौन जागा है
 सब कहते हैं मुस्काता है चन्दा सारी रात। किन नैनो से बरसे हैं फिर शबनम सारी रात।।साहनी
 आप हमसे क्यों ख़फ़ा हैं क्या कहें। आप से हम कब सिवा हैं क्या कहें।। गिर्द मौजें हों कि तूफ़ां उसके सब हम कहाँ उससे जुदा हैं क्या कहें।।  आप सब शिकवे गिले उससे करें,  हम  ज़रा से नाख़ुदा हैं क्या कहें।।
 बारिशों में संगे चकमक हो गया। कद हमारा आसमां तक हो गया।। हुस्न तक तो दिल मुसलमां ही रहा इश्क़ बनकर मैं अनलहक़ हो गया।।साहनी
 अन्धभक्क्त हैं साथ सब, सत्ता की भी शक्ति। और स्वयं को कह रहा एक अकेला व्यक्ति।।साहनी अब चोरों ने गढ़ लिए संतों जैसे तर्क। किंकर्तव्यविमूढ़ जन करें कहाँ से फ़र्क।।साहनी
 आज फिर चाँद तन्हा रहा रात भर। जाने किसके लिए था रुका रात भर।। कहकशाओं ने शबनम की बरसात की चाँद ग़म की नदी में बहा रात भर।।साहनी
  क्या हुआ ऐसा क्या हो गया चाँद को  क्यों रहा बादलों में छुपा रात भर।। किसलिए चांदनी अनमनी सी रही चाँद भी कुछ दिखा अनमना रात भर।।
 माँ बेटी की मृत्यु से द्रवित हुआ संसार। भृगुसुत क्यों आते नहीं लेकर आज कुठार।। सहसबाहु नित कर रहे विप्रों का अपमान। उठिये हे भृगुवंशमुनि कब लेंगे संज्ञान।।साहनी
 कुछ सलीके के कारोबार करें। अब मुहब्बत को दरकिनार करें।। दिल लगाकर तो बेक़रार हुये आप कहते हो फिर क़रार करें।। किसके दौलतकदे पे सर रख दें किसकी सरमा से जाके प्यार करें।। और किसके लिए अदावत लें जब वो गैरों पे दिल निसार करें।। और फिर किसकी राह देखें हम और किस किसका इंतज़ार करें।। अपनी सांसों पे एतबार नहीं आप पर भी क्यों एतबार करें।। हम भी ग़ालिब को बोल दें चच्चा सिर्फ़ तसदीक़ जो ख़ुमार करें।। उन से कहिए नये अदीबों में साहनी को भी तो शुमार करें।।
 तुमने किया न याद कभी प्यार से हमें नफ़रत तुम्हारी हमसे भुलायी नहीं गयी।। साहनी
 किसी के तीर पे अपनी कमान मत लादो। मैं बोल सकता हूँ अपने बयान मत लादो।। शुआयें शम्स की मेरा ख़याल रखती हैं सफर में मुझपे कोई सायबान मत लादो।। कहाँ लिखा है कि मज़हब बहुत ज़रूरी है ज़रा से दिल पे तुम अपना जहान मत लादो।। कहाँ से मैं तुम्हें फिरकापरस्त लगता हूँ मेरी जुबान पे अपनी जुबान मत लादो।। ये ज़िन्दगी भी कहाँ इम्तेहान से कम है सो मुझ पे और कोई  इम्तेहान मत लादो।। जरा ज़मीन को करने तो दो कदमबोसी अभी से सर पे मेरे आसमान मत लादो।। खुशी से मर तो रहा है उस एक वादे पर कि साहनी पे नए इत्मिनान मत लादो।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 9451545132
 विदेशों में भले त्योहार होगा। हमारे वास्ते इक वार होगा।। हमारे देश मे है प्यार पूजा तुम्हारे देश का व्यापार होगा।।साहनी
 चॉकलेट से निम्मन महुवा होखेला। महुवारी में मह मह महुवा महकेला।। बड़हरिया में सोनचिरैया चहकेले अमराई में जब जब कोकिल कुहुकेला।।साहनी
 वेलेंटाइन जी भले होंगे बड़े फ़क़ीर। यहाँ प्रेम का नाम है केवल दास कबीर।।
 झूठ सफल है देख कर निकला यह निष्कर्ष। अब जनता अपराध को मान रही आदर्श।।
 प्यार अवसर चाहता है दिन नहीं। रोज़ डे हो रोज पर तुम बिन नहीं।। प्यार का रस्ता  है सीधा और सरल प्यार में इफ बट नहीं लेकिन नहीं।। SS
 अधिकारी हो  कर्म के फल अधिकारी लेश। जैसे भी हो मानिये गीता के उपदेश।।  दोहे सुरेश
 हमको इंग्लिश के रूल क्या मालूम। उनको   देशी उसूल  क्या मालूम।। वो तो हमको कबूल हैं हरदम हम हैं उनको कबूल क्या मालूम।। प्रेम पूजा है कारोबार नहीं क्यों गये लोग भूल क्या मालूम।। आज गोभी का फूल  ले आये रोज़ डे फूल वूल क्या मालूम।। एक दिन किस डे एक दिन हग दे हमको ये ऊलजलूल क्या मालूम।। फ्रेंड्स शिप बैंड दे बहिन जी ने क्यों कहा हमको फूल क्या मालूम।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 आसमानों को कद से क्या लेना। आशिक़ी को हसद से क्या लेना।। छुप के रहता है आसमानों में हम को उस ना-बलद से क्या लेना।। दिल्लगी है अगर तो हुज़्ज़त क्यों दिल को जद्दोजहद से क्या लेना।। हुस्न को ख़ुद अबद बनाता है इश्क़ है तो समद से क्या लेना।। फिर सनद की किसे ज़रूरत है इश्क़ को मुस्तनद से क्या लेना।। हुस्न  हद में रहे   रहे न रहे इश्क़ वालों को हद से क्या लेना।। तुम न मजनूँ हुए न समझोगे इश्क़ को ख़ाल-ओ-ख़द से क्या लेना।। हम हैं नाकिद-परस्त कुछ समझे हम को अहले-हमद से क्या लेना।। साहनी को यकीन है उस पर हम को उस की ख़िरद से क्या लेना।। हसद-ईर्ष्या,  ना-बलद -  विदेशी, अपरिचित, ईश्वर हुज़्ज़त- बहस, जद्दोजहद- यत्न, संघर्ष अबद- अमर    समद - बेनयाज, अल्लाह, परवाह न करने वाला सनद-प्रमाणपत्र मुस्तनद- प्रमाण देने वाला , मान्य मजनूँ- दीवाना प्रेमी ख़ाल-ओ-ख़द -  चेहरा मोहरा रूप नाकिद - आलोचक अहले-हमद - प्रशंसा करने वाला ख़िरद - बुद्धि सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ज़िन्दगी और मौत दोनों की  ये अदावत अज़ल से क़ायम है ज़िन्दगी किसको सोने देती है मौत भी जागने नहीं देती।।साहनी
 सरकारें कितना परिवर्तन करने को उद्यत दिखती हैं कहते हैं गांधी गोली के  आगे  खुद चल के आया था आओ मुझे शहीद बना दो कह कितनों को उकसाया था
 जबकि जारी है मुसलसल मैय्यतों के सिलसिले खाना ख़राबी आज भी कब्र की तकदीर है।।साहनी
 क़यामे-मुख़्तसर में ख़ाक़  लिखता।। ये किस्सा इक ठहर में ख़ाक़ लिखता।। तेरी ज़ुल्फ़े-परीशां की कहानी भला छोटी बहर में ख़ाक़ लिखता।। कहानी ज़िन्दगी के ज़ेरोबम की कोई फँस के भंवर में ख़ाक़ लिखता।। मुहब्बत को न आयी तंगनज़री तो नफ़रत के असर में ख़ाक़ लिखता।। ग़ज़लगोई तसल्ली मांगती है उधर उलझन थी सर में ख़ाक़ लिखता।। मेरा शायर गदायी था मिज़ाजन न् तुलना था गुहर में ख़ाक़ लिखता।। सुरेश अपनी कहानी कह रहा था भला मैं रात भर में ख़ाक़ लिखता।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 भूल चूक लेनी देनी है परंपरा भाई। नागर भाई क्यों न् बजट की करें बड़ाई ।। जाएंगे लाखों करोड़ अब बट्टे खाते में  इसीलिए तो ले आये हम बजट बहीखाते में।।
 फूलों की बेनियाज़ी इस दिल को चुभ रही थी, ख़ारों ने बढ़ के दामन थामा तो चैन आया।।साहनी
 जब कभी आसमां निहारा कर। अपने पंखों को भी पसारा कर।। हुस्न ख़ुद को जहां संवारा कर। इश्क़ की राह भी बुहारा कर।। ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी हैं अपने सपनों को यूँ न् मारा कर।। मंजिलें चल के पास आएंगी  रास्तों की नज़र उतारा कर।। ख़्वाब ऊँचे ज़रूर रख लेकिन अपनी चादर में दिन गुज़ारा कर।। अपने  होने पे नाज कर प्यारे अपनी हस्ती से मत किनारा कर।। फिर तकल्लुफ की क्या ज़रूरत है नाम लेकर मुझे पुकारा कर।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132