ग़ज़ल

 मेरी एक ग़ज़ल अच्छी थी।

मैंने तुम पर तब लिक्खी थी।।


तुमने मेरे बालों में जब

अंगुलियों से कंघी की थी।।


तुम्हे याद है तब फूलों से

भी तुम घायल हो जाती थी।।


जाने कैसे नंगे पैरों

तब मिलने आया करती थी।।


पर जैसे अब शर्माती हो

क्या तुम सचमुच शर्माती थी।।


क्या वह तुम थी शक होता है

तुम खुद से भी शरमाती थी।।


अब मैं कवि हूँ कैसे कह दूँ

तुम ही तो मेरी कविता थी।।


Suresh Sahani कानपुर

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