भटक रहे हैं अब भी वन वन जाने कितने राम।
मातु पिता के आदर्शों की ख़ुद पर कसे लगाम।।
कैकेयी सी कोप भवन में बैठी हैं छलनाएँ
पिता विवश हैं कैसे तृष्णाओं पर कसे विमायें
शीथिल दशरथ इन्द्रिय गति को कैसे लेते थाम ।।
भटक रहे हैं अब भी वन में जाने कितने राम।.......
कभी अवधपति और कैकई एक व्यक्ति होते हैं
और मंथरा चरित भ्रमित कुछ नेक व्यक्ति होते हैं
कभी कभी वन से दुरूह हो जाते हैं घर ग्राम।।
भटक रहे हैं अब भी वन में जाने कितने राम।
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