चीन और भारत

 हम अपने पारंपरिक शत्रु चीन को ही प्रथम शत्रु मानते रहते तो यह स्थिति नही बनती।किन्तु नेहरू से लेकर मोदी तक भारत प्रवंचना में जीता रहा है।नेहरू जी ने पंचशील के सिद्धांत बनाएं।गुट निरपेक्ष आंदोलन को जन्म दिया।अमेरिका सहित वैश्विक शक्तियों से समान दूरी बनाई।किन्तु चीन जैसे हमारी शांति की अवधारणा को हमारी कमजोरी मानकर अवसर की प्रतीक्षा में बैठा था।उसने नवोदित भारत को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका भी नही दिया।और सीमा विवाद के बहाने भारत की जमीन ही नहीं हथियाई बल्कि सम्राट अशोक के समय भारत की आध्यात्मिक यज्ञशाला और एक बड़े बफर इस्टेट तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया।इसके साथ ही भारत के एक बड़े भूभाग पर भी कब्ज़ा कर लिया।आज भी यह दुष्ट राष्ट्र भारत समेत अपने सभी पड़ोसी शांतिप्रिय देशों को हानि पहुँचाता रहता है या कुचक्र रचता रहता है।

 मैं एक भारतीय होने के नाते भारतीय प्रधानमंत्री के साथ खड़ा हूँ।मुझे पता है कि माननीय मोदी जी की मंशा उतनी ही साफ़ है जितनी नेहरू जी की थी।वे भी नेहरू जी की भांति देशहित के मामले ने निष्कपट हैं।किन्तु यह दुनिया और दुनिया के कुछ मुमालिक इतने निष्कपट या अच्छे नही हैं।

शायद नेहरू जी को यह भ्रम हो गया था कि उन्हें वैश्विक नेता मान लिया जाएगा।या उनके दिमाग में विश्वशांति का नोबेल पुरस्कार बैठ गया था।और जब उन्हें ठोकर लगी तो इस सदमे को वे बर्दाश्त नही कर पाये। श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी लगभग हर जतन कर लिया ।चीनी राष्ट्रपति को झूला झुलाया।गुजराती व्यंजन खिलाया।अमेरिका को 100% एफडीआई का उपहार भी दे आये।शायद उन्हें लगा हो कि अमेरिका और चीन जनमत का सम्मान करते लगे हैं।उन्हें अनुमान था कि न्यूक्लिअर सप्लायर ग्रुप में स्थायी सदस्यता मिलने के उन्माद में एफडीआई वाला कलंक धुल जाएगा।और जनता उसी तरह इस गुलामी को स्वीकार कर लेगी जैसे मज़हबी उन्माद में भूख , गरीबी और महंगाई को भूल जाती है। किन्तु उन शक्ति संपन्न राष्ट्रों को पता है कि मजबूत और संपन्न भारत उनका बाज़ार कभी नही बनेगा।उन्हें पता है समर्थ भारत अपने मानव संसाधन क्षमता से पूरे विश्व पर अपना प्रभाव जमा सकता है।आखिर कमज़ोर और गरीब राष्ट्र आपस में लड़ेंगे नहीं तो उनका हथियार बाजार कैसे कायम रहेगा।वे विश्व शांति का सन्देश देने वाले किसी राष्ट्र को आगे कोई सबल क्यों आने देगा। हमें यहां यह भी ध्यान रखना है कि हम चीन विरोध में अमेरिकी मोहरा न बन जाएँ।क्योंकि यह दोनों अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हथियारों के समान स्तर के व्यापारी होने के साथ साथ बड़े आर्थिक सहयोगी भी हैं।आज की तिथि में अमेरिका में चीन का सर्वाधिक निवेश है।या दूसरे शब्दों में कहें तो आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था चीनी बैसाखी पर ही टिकी है।भारत के स्वाभाविक शत्रु पाकिस्तान को दोनों समान रूप से मदद करते हैं।पाकिस्तान में चीन और अमेरिका दोनों के सैनिक अड्डे हैं।और दोनों देश पाकिस्तान में ढांचागत विकास में समान भागीदार भी हैं।

  हमारे आगे सम्राट अशोक और समुद्रगुप्त ,औरंगजेब और बाजबहादुर जैसे शासको के उदाहरण हैं ,जिन्होंने अपनी तलवार के दम और पराक्रम से चीन को भी अपने प्रभाव में रखा।यहां यह पुनः ध्यान देने योग्य है कि उनके शांति के सन्देश उनके पराक्रम के बाद ही स्वीकार किये गए।तुलसीदास जी ने भी कहा है कि #बिनुभयहोइनप्रीति।।

  अब हमें ध्यान देना है कि जो लंबा समय हमने शांति और अहिंसा के छद्म सिद्धांतों पर बर्बाद किया है अब उसमे सुधार किया जाये और अब सारे कार्यक्रम सामरिक रणनीति के अनुसार ही निर्धारित किये जाएँ।कम से कम अब आने वाले समय का उपयोग हम प्रथम शत्रु से समर्थ होने में व्यय करें।हमें चीन के पड़ोसी और त्रस्त देशों के साथ साझा सामरिक रणनीति पर कार्य करना होगा।हमें जापान जैसे आर्थिक सम्पन्न राष्ट्रों से साझा सामरिक बजट बनाने पर जोर देना चाहिए।जिससे विएतनाम भूटान और नेपाल जैसे देशों की सीमाएं सुरक्षित हों सकें।


सुरेश साहनी

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