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Showing posts from June, 2022
 सचमुच याद कहाँ आते हैं भूले बिसरे लोग। याद मगर आते हैं अपने दिल में उतरे लोग।। लम्बा एक सफ़र है जीवन अगणित स्टेशन हैं याद किसे है मिले राह में यूँ तो अगणित जन हैं मनु के पहले कितने कितने बाद में गुज़रे लोग।। सब करते हैं गलत बयानी या मुँहदेखी बातें सब जीते हैं अपने ही दिन खोकर अपनी रातें और चढ़ाकर मिलते हैं चेहरों पर चेहरे लोग।। तुम तो याद नहीं हो आते याद तुम्हारे धोखे गढ़ लेते हैं किंतु प्रेम के हम भी चित्र अनोखे ख़ुद को ही छलते हैं गढ़कर स्वप्न सुनहरे लोग।। मृत्यु अटल है मृत्यु सत्य है याद किसे है भैया सिर्फ़ स्वार्थ के रिश्तों में हम सब कुछ भूले भैया अपने ही किरदारों में हम दुहरे तिहरे लोग।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तुम कुछ खोये खोये थे ना। दिल के दर्द संजोए थे ना।। दामन भी भीगा भीगा है सच कहना कल रोये थे ना।। ख्वाबों में कुछ कम मिलते हो वैसे कल तुम सोए थे ना।। मौसम भी है गीला गीला ग़म के बादल ढोये थे ना।। आज तुम्हें जो शूल चुभे हैं कल तुमने ही बोए थे ना।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आप को भी धमाल आते हैं। और क्या क्या कमाल आते हैं।। आप मौका निकालते हैं या मौके खुद को निकाल आते हैं।। जब भी साहिल पे ऊब होती है हम समन्दर उछाल आते हैं।। तुमने देखा है चश्मेनम हमको हम लहू तक उबाल आते हैं।। अपने सपनों को बेचते हैं हम तब तो दिरहम रियाल आते हैं।। वो मेरे मुल्क़ के मसीहा हैं उनको कितने बवाल आते हैं।। ज़िन्दगी रोज़ ज़ख़्म देती है रोज़ हम दर्द टाल आते हैं।। हमको इन डेज़ में यक़ीन नहीं ये जो हर एक साल आते हैं।। साहनी के जेह्न में कुछ तो है शेर क्या बेमिसाल आते हैं।। साहनी,सुरेश कानपुर  9451545132
 एक दारूबाज को पुलिस का सिपाही डपट कर बोला, -क्या कर रहा है बे? दारूबाज ने अपने अंदाज में लहराते हुए कहा,-तुम्हारी तनख़्वाह का इंतज़ाम कर रहा हूँ। आप इसे मजाक में ले सकते हैं।किन्तु मैं गम्भीर हूँ। एक दिन मेरी तरह जनता भी गम्भीरता से चिंतन करेगी।लेकिन हैरानी की बात है कि वर्षों से जनता इसे केवल मजाक में ही ले रही है।हाँ कुछ लोग दुखिया दास बने समाज की चिंता में जागते रहते हैं।ऐसे लोग सदैव दुखी ही रहते हैं।।कांग्रेस के टाइम में भी परेशान रहे।उन्हें लोकतंत्र खतरे में ही दिखता रहा। वे काकस, करप्सन , और काला धन पर चिंतित रहे।जनलोकपाल मांगते रहे।उन्हें किसी भी दल की सरकार में कुछ सकारात्मक नही लगा और अब  भी नही लगता है।मैंने कई कॉमरेडों को देखा है कि वे कॉमरेडों को ही गरियाते रहते हैं।उनका गुस्सा तभी खत्म होता है जब उनकी सुविधाओं का इंतज़ाम हो जाता है।या वे पुलिस की तनख्वाह का इंतज़ाम कर लेते हैं। लेकिन पुलिस ही क्यों हम तो पूरी सरकार को चलाने का इंतज़ाम करते हैं। अब ये जान के ऐठने मत लगना, नही तो सलवारी बाबा बना दिए जाओगे।माल्या की तरह भाग भी नही पाओगे। वैसे बाकी जनता समझदार है।शायद इसी...
 इतिहास मेरा प्रिय विषय रहा है।लेकिन फंतासी,किंवदंतियां,और पौराणिक कथाएं मुझे सरलता से याद हुयीं।कारण साफ था , इनमें तिथियां याद करने का झमेला नहीं रहा।कहीं से कुछ भी उठाकर बोल दो कोई सवाल नहीं खड़ा होता।मैं खुद लोगों को ऐसी दंतकथाएं सुनाता रहता हूँ।लेकिन यह भी सत्य है कि इन कथाओं का मन्तव्य समाज मे लोगों को सन्मार्ग पर ले जाना और परोपकार के लिए प्रेरित करना ही रहता है।जैसे कि- गुरु मछिंदरनाथ अपने दस हजार शिष्यों के साथ हिमालय में आज भी विचरण करते हैं।  हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने भी इसी का सहारा लिया। उनकी बात से तथाकथित प्रगतिशील लोग इत्तेफ़ाक़ रखते हों अथवा न रखते हों ,पूर्वांचल की भोली भाली, धर्मभीरु शिक्षित,और अनपढ़ गंवार जनता पूरी तरह प्रभावित होती है और हुई है। भारतीय जनता को पश्चिम का वैज्ञानिक दृष्टिकोण,मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद और सुरेश साहनी के #समन्वयवाद से ज्यादा मतलब नहीं है। उसे लालू जी और मोदी जी की तरह उनकी दुखती रगों को सहलाने वाली और उनसे अंतरंगता का एहसास कराने वाली आत्मीय भाषा अधिक आत्मीय लगती है।
 आज बारिश हुई है जी भर के। पेड़ टूटे चरर मरर कर के।। हर तरफ जाम हर तरफ फिसलन लोग निकलेंगे बच के डर डर के।। पहली बारिश मे चरमरा उट्ठे हाल बिगड़े निगम के दफ्तर के।। वो विधायक बनेगा हीरो है कौम मेडल भी देगी मर्डर के।। बादलों कर्ज़दार किसके हो इस ज़मीं के कि उस समन्दर के।। ये ग़ज़ल दम न तोड़ दे क्योंकि दर्द इसमें नहीं जहाँ भर के।। सुरेश साहनी
 सच से आँख चुराएं कैसे। अन्तस् से बिक जाएं कैसे।। कुछ सुविधाओं के एवज में  ग़ैरत से गिर जायें कैसे।। नोटों में बिकने वालों से अपने वोट बचायें कैसे।। नारी गृह में नेता सोचे अपनी हवस मिटायें कैसे।। मंत्री जी की गिद्ध नज़र से बचे भला बालायें कैसे।। बन्धक अपने खेत पड़े हैं घर रेहन रख आएं कैसे।।। कोरे भाषण से क्या होगा बच्चों को समझाए कैसे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 दर्द है उनकी कमर में लेकिन। पांव लटके हैं क़बर में लेकिन।। हुस्न है उनकी पकड़ से बाहर इश्क़ है उनकी नज़र में लेकिन।। रात को तौबा भी कर लेते हैं भूल जाते हैं फ़ज़र में लेकिन।। हिलता रहता है सरापा उनका शौक़ है उनके जिगर में लेकिन।। रस्सियां जल के बुझी चाहे हैं अब भी ऐंठन है बशर में लेकिन।। रात ढलनी है चिरागों सच है वक्त है अब भी सहर में लेकिन।। सुरेशसाहनी
 जलवों ने बीनाई ली है । आंखों ने रुसवाई ली है।। सागर में तूफान न आये साक़ी ने अंगड़ाई ली है ।। उन आंखों को कौन कहेगा तोहमत है हमने पी ली है।। वो नज़रें क्योंकर फेरेगा अपनी ही तबियत ढीली है।। सोच बहुत छोटी है उसने कद में कुछ ऊंचाई ली है।। कुछ हम पर भी रहमत करती  खूब सुना था खर्चीली है।। थक कर टूट चुके हैं ग़म भी आहों ने जम्हाई ली है।। सुरेशसाहनी
 इतना भी फैशन ठीक नहीं। यूँ अंग प्रदर्शन ठीक नहीं।। है सीधी राह भली प्यारे ये पथ से भटकन ठीक नहीं।। ज्यादा परदा भी घातक है चिलमन पे चिलमन ठीक नहीं।। जाने कितने बेमौत मरे यह तिरछी चितवन ठीक नहीं।। कोशिश भर दाग न लगने दो मैला हो दामन ठीक नहीं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 ऐसा गठबंधन ठीक नहीं। समझौता बेमन ठीक नहीं।। हुई जाई मुंडन ठीक नहीं। घर में सम्मेलन ठीक नहीं।। उनको पनीर हम दाल भात अब अइस प्रबंधन ठीक नहीं।। कछु नेग सेग की बात करौ छूछे कनछेदन ठीक नहीं।। हमरे हो हमरी ओर रहो थाली के बैंगन ठीक नहीं।। उई बेलन लिहे अगोरत हैं लागत है लच्छन ठीक नहीं।। हम उनते कहिबे हाथ जोड़ बेटाइम पूजन ठीक नहीं।। अब शादी हो गइ तो हो गइ अब और इलेक्शन ठीक नहीं।। इक बार फंस गए काफी है जन्मों का बंधन ठीक नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 भटक रहे हैं अब भी वन वन जाने कितने राम। मातु पिता के आदर्शों की ख़ुद पर कसे लगाम।। कैकेयी सी कोप भवन में बैठी हैं छलनाएँ पिता विवश हैं कैसे तृष्णाओं पर कसे विमायें शीथिल दशरथ इन्द्रिय गति को कैसे लेते थाम ।। भटक रहे हैं अब भी वन में जाने कितने राम।....... कभी अवधपति और कैकई  एक व्यक्ति होते हैं और मंथरा चरित भ्रमित कुछ नेक व्यक्ति होते हैं कभी कभी वन से दुरूह हो जाते हैं घर ग्राम।। भटक रहे हैं अब भी वन में जाने कितने राम।

चीन और भारत

 हम अपने पारंपरिक शत्रु चीन को ही प्रथम शत्रु मानते रहते तो यह स्थिति नही बनती।किन्तु नेहरू से लेकर मोदी तक भारत प्रवंचना में जीता रहा है।नेहरू जी ने पंचशील के सिद्धांत बनाएं।गुट निरपेक्ष आंदोलन को जन्म दिया।अमेरिका सहित वैश्विक शक्तियों से समान दूरी बनाई।किन्तु चीन जैसे हमारी शांति की अवधारणा को हमारी कमजोरी मानकर अवसर की प्रतीक्षा में बैठा था।उसने नवोदित भारत को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका भी नही दिया।और सीमा विवाद के बहाने भारत की जमीन ही नहीं हथियाई बल्कि सम्राट अशोक के समय भारत की आध्यात्मिक यज्ञशाला और एक बड़े बफर इस्टेट तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया।इसके साथ ही भारत के एक बड़े भूभाग पर भी कब्ज़ा कर लिया।आज भी यह दुष्ट राष्ट्र भारत समेत अपने सभी पड़ोसी शांतिप्रिय देशों को हानि पहुँचाता रहता है या कुचक्र रचता रहता है।  मैं एक भारतीय होने के नाते भारतीय प्रधानमंत्री के साथ खड़ा हूँ।मुझे पता है कि माननीय मोदी जी की मंशा उतनी ही साफ़ है जितनी नेहरू जी की थी।वे भी नेहरू जी की भांति देशहित के मामले ने निष्कपट हैं।किन्तु यह दुनिया और दुनिया के कुछ मुमालिक इतने निष्कपट या अच्छे नही हैं।...
 फुटबॉल भारत का राष्ट्रीय खेल है।एक बच्चे ने जीके में यही उत्तर दिया था।बाकी के बच्चे हँस दिए थे।क्योंकि वे सब जानते थे कि नए भारत का राष्ट्रीय खेल फुटबाल नहीं क्रिकेट है। पता नहीं किसलिए किताबों में क्रिकेट की जगह हॉकी लिखा रहता है। उससे अच्छी जानकारी तो गूगल बाबा देते हैं।जैसे गूगल पर इन दिनों नेहरू जी को मुसलमान और हर विपक्ष समर्थक को देशद्रोही बताया जा रहा है।   वैसे तो भारत मे पूरा सिस्टम ही फुटबाल है तथा सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दो टीम हैं। हमारे देश की जनता भी फुटबाल ही है, जिससे नेता और नौकरशाह खेलते रहते हैं। कई बार तो पार्टियां अच्छे खासे नेता को फुटबाल बना देती हैं।समझदार नेता अपनी हवा खुद ही निकाल कर चुपचाप कोना पकड़ लेता है।  लेकिन बात तो असली फुटबॉल की चल रही है। पता नहीं क्यों हमारे अनूप शुक्ल जी ने इस पर जुगलबन्दी की बात चला दी।जबकि भारत मे फुटबाल गोलबंदी से जुड़ा विषय है। फिलहाल हमारा मीडिया दस पन्द्रह दिन फुटबाल मय हो जाता है।स्टूडियो बड़े मैदान सा नजर आएगा। एंकर फुटबाल की तरह उच्छलते मचलते नजर आएंगे।पता नहीं कहाँ से दिल्ली के आसपास से तीन चार अंतरराष्ट्री...
 या हमें रास्ता दिखा दीजै। या सलीके का मशविरा दीजै।। सिर्फ़ इस्मे-शरीफ़ पूछा है अपनी औक़ात मत बता दीजै।। आप भी हैं इसी मुहल्ले में यूँ शरारों को मत हवा दीजै।। लोग रहते हैं किस मुहब्बत से इनको आपस में मत लड़ा दीजै।। या मेरे दर्द की दवा करिये या मेरे दर्द को बढ़ा दीजै।। आप गमख़्वार हो नहीं सकते कुछ न दीजै तो हौसला दीजै।। हम तो आदम के ख़ानदानी हैं आप भी अपना सिलसिला दीजै।। सुरेश साहनी कानपुर
 लड़ न सको तो हार मान लो परिस्थिति वश सब झुकते हैं यार समय से बड़े नहीं तुम और सिकन्दर होने का भ्रम स्वयं सिकन्दर का टूटा था तुम तो तुम हो फ़ानी हो तुम समय नही हो शाश्वत है तो सिर्फ़ समय है समय सिकन्दर हो सकता है समय रंक है राजा भी है समय भूप है समय प्रजा है फिर पत्नी बच्चों की हत्या तुम उन सबके समय नहीं थे अब कैसे मुँह दिखलाओगे तुम हारे थे किन्तु तुम्हारे बच्चे उत्तर दे सकते थे उसी समय को जिसके आगे तुम अपराधी बने खड़े हो...... सुरेशसाहनी, कानपुर
 प्रेम को देखा नहीं है प्रेम की अनुभूति की है माँ पिता जी साथ मिलकर नित्य प्रति तैयार करके नाश्ता और टिफिन दोनों प्रेम से देते थे हरदम यह कि बेटा लेट ना हो मॉड्यूलर सा कुछ नहीं था हाँ मगर मिट्टी का चूल्हा था मेरे घर एक कोयले की अँगीठी और दोनों साफ सुथरे  माँ उन्हें नित साफ करती लेपती मिट्टी से नित प्रति और उस चूल्हे की रोटी दाल खाकर हमें जो संतुष्टि मिलती उसकी वजह प्रेम की सोंधी महक थी आत्मीयता के स्वाद से लिपटा सचमुच प्रेम वह था...... सुरेशसाहनी, कानपुर
 कहानी से उभर आये कई किस्से,कहानी में। रवानी से उभर आये कई किस्से, रवानी में।। किसी की बात क्या करते कहीं की बात क्या करते उसी से कब उबर पाये नई की बात क्या करते पुरानी से उभर आये कई किस्से पुरानी में।। किसे मुंसिफ़ बनाते हम व्यथा किसको सुनाते हम मेरे मुख्तार थे जब तुम तुम्हें कैसे मनाते हम बयानी से उभर आये कई किस्से,बयानी में।। कहानी अपनी उल्फ़त की ज़माने से अदावत की तेरी तस्वीर सीने में निशानी है मुहब्बत की निशानी से उभर आये कई किस्से, निशानी में।।
 अब देश कमजोर करने के लिए किसी बाहरी ताकत को कुछ नहीं करना पड़ेगा। पूरे देश मे बना भयावह वातावरण इस के लिए पर्याप्त है। किंतु इसके लिए कोई दल विशेष दोषी नहीं है।इसके लिए वे सभी व्यक्ति,नेता अथवा दल दोषी हैं,जिन्होंने अपने राष्ट्रीय नेताओं को अपना रोल मॉडल तो बनाया किन्तु उनके सिद्धान्तों और जीवन मूल्यों से सदैव किनारे रखा।   वे सभी लोग दोषी हैं जिन्होंने मात्र विरोध के नाम पर विरोध की राजनीति की और देश के विकास में बाधा डालते रहे। इसका एक उदाहरण कंप्यूटर तकनीक के विरोध में बैलगाड़ी वाला प्रदर्शन भी है।  उन सभी फर्जी समाजवादी नेताओं का दोष भी है जो समाजवाद के नाम पर राजनीति में सफल तो हुए ,किन्तु सत्ता पाते ही समाज से विमुख हो गए।  वे अल्पसंख्यक नेता भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपनी ऊर्जा अपने समुदाय के सांगोपांग विकास की जगह केवल उनकी मज़हबी पहचान बनाये रखने में लगा दी। जबकि इस संकीर्ण सोच ने अल्पसंख्यक समुदायों को राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा से बाहर कर दिया। वे अम्बेडकरवादी भी ज़िम्मेदार हैं जो बाबा साहेब के नाम पर राजनीति तो करते हैं परंतु अपने समाज को सही दिशा दे...

सदियों सादिया

 सदियों सदियों हार हार कर लहरों सा सर मार मार कर सत्यवती की तरह समर्पण- करना है तो मत विचार कर झंझावात प्रलय दावानल आँधी या घनघोर घटायें बुझना ही है ,बढ़ना ही है- अँधियारा क्या दीप जलाएं पूर्वज अगणित मरते देखे वंश वृद्धि का मोह न छूटा फिर फिर पीड़ा प्रसव सरीखी भुला काम ने यौवन लूटा मेरे हाथ स्वयं शीथिल हैं मैं किसको क्या बाँध सकूँगा कोष हीन मैं ,शक्ति हीन मैं किंचित कुछ भी दे न सकूँगा कामी कपटी पुत्र हुए जो  मधुप्रेमी रोगी या भोगी वीर्यविचित्र पुत्र यदि होंगे आशायें धुसरित ही होंगी ऐसी सन्ततियों के बल पर  आखिर किससे रार ठान लें इससे बेहतर मौन धार ले नीयति को उपहार मान लें यदि आशीष लगे उपयोगी यह ले लो कुछ शेष बचा है होनी अनहोनी क्यों सोचें विधना ने जब यही रचा है।। सुरेशसाहनी

तुम अमृत पी लेते

 तुम अमृत पी लेते ख़ुद को देव तुल्य हो जाने देते। अपने गरल हमें दे हमको नीलकंठ हो जाने देते।। हमने कब रोका था तुमको सब आकाश तुम्हारा ही था बीच राह में टूट गया जो वह विश्वास तुम्हारा ही था दीप जलाते आशाओं के तूफानों को आने देते।। अपने गरल... शाश्वत प्रेम भूलकर तुमने अनुबंधों का जीवन जीया देह अर्थ आसक्त कृतिम किन सम्बन्धों का जीवन जीया भाव प्रधान प्रेम अपनाते कुछ खोते कुछ पाने देते।।अपने गरल.... सुरेशसाहनी
 कुछ लोग जी रहे हैं कुछ लोग मर रहे हैं इस मस्लेहत से वाकिफ सारे गुज़र रहे हैं इतनी बड़ी बगावत क्यों आप कर रहे हैं सुन देख तो रहे थे सच बोल भी रहे हैं कुछ लोग मर रहे हैं क्या फर्क पड़ रहा है जब सौ करोड़ मुर्दे इंसान जी रहे हैं दुनिया को क्या हुआ है दुनिया तो चल रही है दुनिया की फ़िक्र में क्यों बेज़ार हो रहे हैं मज़हब परस्त कोई इंसान कब रहा है ये जानवर हैं सारे खूँख्वार हो गए हैं हथियार ले के दुनिया आपस मे लड़ रही है हथियार से अमन के ऐलान हो रहे हैं दुनिया बनाने वाला ख़तरे में है बताकर मज़हब चलाने वाले सब मौज कर रहे हैं सुरेशसाहनी, कानपुर
 तुम का उखाड़ लईहो । केहिका पछाड़ लईहो।। बहुमत मिला है उनका तुम का बिगाड़ लईहो।। जब एक मत नहीं हौ काहे बदे मरत हो दल दल में एक हुई के झंडा न गाड़ लईहो।। ऐसे न होई खेती सब आन के भरोसे तुमसे न हुई सकत है अपने न फाड़ लईहो।। पाछे न जीत पाये मैनेजरन के बूते ऐसे न जीत पईहो जो फिर जुगाड़ लईहो ।। चाहो तो कइ सकत हो गम्भीर हुई के देखो हर बार हम नये हैं की केतनी आड़ लईहो।। सुरेशसाहनी, कानपुर #व्यंग रचना
 सीधे सादे मसलों में अपनी टांग अड़ाना सीख। हवा हवाई बातों से जनता को भरमाना सीख।। हंसना रोना गाना सीख चलना आना जाना सीख राजनीति आ जायेगी झूठी कसमें खाना सीख।।SS

ग़ज़ल

ये हुस्न बेमिसाल है कितनी बहार का। गोया कोई ख़याल हों नगमानिगार का ।। ये हुस्न देख कर कई इमां पे आ गए सब को यकीन हो चला परवरदिगार का।। महफ़िल में मेरे सामने जलवानुमा न हो इतना न इम्तेहान ले सब्रो-क़रार का।। गैरों से मेलजोल भली बात तो नही कमज़ोर सिलसिला है सनम एतबार का।। कलियाँ चटक चटक के जवां फूल बन चुकीं दम टूटने लगा है मेरे इंतज़ार का।। सुरेशसाहनी, कानपुर

 ये हुस्न बेमिसाल है कितनी बहार का। गोया कोई ख़याल हों नगमानिगार का ।। ये हुस्न देख कर कई इमां पे आ गए सब को यकीन हो चला परवरदिगार का।। महफ़िल में मेरे सामने जलवानुमा न हो इतना न इम्तेहान ले सब्रो-क़रार का।। गैरों से मेलजोल भली बात तो नही कमज़ोर सिलसिला है सनम एतबार का।। कलियाँ चटक चटक के जवां फूल बन चुकीं दम टूटने लगा है मेरे इंतज़ार का।। सुरेशसाहनी, कानपुर

आडवाणी

 आडवाणी में क्या बुरायीं है। सिर्फ मस्ज़िद ही एक गिराई है।। आज काँटे कहाँ से आ टपके आज जबकि बहार आयी है।। आज वो ही हुए प्रतीक्षारत जिनकी मेहनत से रेल आयी है।। अब जलन किसलिए तपिश कैसी आग हमने ही तो लगायी है।। दुनियादारी मगर निभानी है रो के हँस के उसे बधाई है।।

मेरा लिखा

 मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर  जाने कितने चुकवि बन गये। मैं रह गया महज एक जुगनू वे तारा शशि रवि बन गये।। निश्चित यह मेरा प्रलाप है इसे दम्भ भी कह सकते हो मन की कुंठा,हीनग्रंथि या  उपालम्भ भी कह सकते हो पर यह सच है मन मलीन ही छवि भवनों में सुछवि बन गए।। मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर ....... इधर उधर से नोच नाच कर कविता पूरी कर लेते हैं दिन दहाड़े शब्द चुरेश्वर रचना चोरी कर लेते हैं वे याजक बन गए सहजतः हम समिधा घृत हवि बन गये।। मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर ....... सुरेशसाहनी, कानपुर

ग़ज़ल

 मेरी एक ग़ज़ल अच्छी थी। मैंने तुम पर तब लिक्खी थी।। तुमने मेरे बालों में जब अंगुलियों से कंघी की थी।। तुम्हे याद है तब फूलों से भी तुम घायल हो जाती थी।। जाने कैसे नंगे पैरों तब मिलने आया करती थी।। पर जैसे अब शर्माती हो क्या तुम सचमुच शर्माती थी।। क्या वह तुम थी शक होता है तुम खुद से भी शरमाती थी।। अब मैं कवि हूँ कैसे कह दूँ तुम ही तो मेरी कविता थी।। Suresh Sahani कानपुर

गजल

 प्रश्न कुछ लाज़वाब होते हैं। हम जो ख़ाना ख़राब होते हैं।। ज़िन्दगी और कैफ़ देती है दर्द जब बेहिसाब होते हैं।। ख़्वाब में आके रूठ जाओ तुम और कैसे अज़ाब होते हैं।। सपके अपने सवाल होते हैं सबके अपने जवाब होते हैं।। नींद उनको कभी नहीं आती जिनकी आंखों में ख़्वाब होते हैं।। सुरेशसाह नी, कानपुर

इंडिया और भारत

 हम बहुत भाग्यवान हैं क्योंकि हम भारत मे जन्में हैं।हम इसलिए भी भाग्यशाली हैं क्योंकि हमारे पास आहत होने के बावजूद दुखी होने का समय नहीं हैं।हम एक डॉक्टर पर हमला होने पर उद्वेलित होते हैं, तो तुरंत एक दूसरे डॉक्टर को जूते से पीटे जाने पर तालियां भी बजाते हैं। एक लड़की के रेप होने पर कैण्डल मार्च और रैलियां निकालते हैं तो सैकड़ों बलात्कार होने के बावजूद मौन भी साध लेते हैं। वस्तुतः हम बहुआयामी हैं।हमें मालूम है कि सब माया है।   अभी बिहार में सैकड़ों की संख्या में बच्चे मर गए।डॉक्टर्स कह रहे हैं बच्चे इंसेफेलाइटिस से मरे हैं।विशेषज्ञों की राय है कि कच्ची लीची में पाए जाने वाले न्यूरोटॉक्सिन की वजह से मौते हुई हैं।बीच में यह रिपोर्ट भी आई कि बच्चों में मरने के पूर्व हाइपोग्लाइसीमिया के लक्षण पाए गए जो मृत्यु की बड़ी वजह बनी।कुछ लोग बोल रहे हैं कुपोषण इसका प्रमुख कारण हैं। सबसे सही बात स्वास्थ्य मंत्री जी ने बताई है कि बच्चे अपने दुर्भाग्य से मरे हैं। और मेरा भी मानना है चौबे जी ने सत्य कहा है।यह उन बच्चों का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि वे ऐसे माननीयों के प्रतिनिधित्व वाले राज्यों में...

गीत मुझे उम्मीद है

 मुझे उम्मीद तो है कल मिलोगे।। कमल बन मन सरोवर में खिलोगे।। कोई वादा वफ़ा यदि हो न पाया जो कोई स्वप्न पूरा हो न पाया तो क्या इतनी ख़ता पे छोड़ दोगे।। तो क्या अब प्यार करना छोड़ दूं मैं हर इक उम्मीदो-हसरत तोड़ दूँ मैं भरम में कब तलक रक्खे रहोगे।। मुहब्बत चीज़ है क्या उम्र भर की ज़रूरत भी न होगी जब शकर की  शहद बन ज़िन्दगी में तब घुलोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर

ग़ज़ल - वो नाजों में पला लगे है।

 वो नाज़ों में पला लगे है। फूलों फूलों चला  लगे है।। यार अगर रूठा रूठा हो ऐसे में क्या भला लगे है।। जिसने इश्क़ किया ना होगा इश्क़ उसी को बला लगे हैं।। पर उसकी नज़रें हैं चंचल कभी कभी मनचला लगे है।। रीझ गया है मन क्यों उस पर यह भी कुछ बावला लगे है।। सुरेश साहनी, कानपुर