तुम नहीं तो क्या सहारे और हैं। और सूरज चाँद तारे और हैं।। क्या गुमाँ है इक तुम्हारे और हैं। सुन कि कितने ही हमारे और हैं।। तुमने क्या सोचा कि हम जां से गये अपनी किस्मत के सितारे और हैं।। हुस्न पर बेशक़ ज़माना हो फिदा इश्क़ वालों के नजारे और हैं।। कुछ तो होंगे साहनी अहले-वफ़ा किस तरह कह दें कि सारे और हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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Showing posts from 2025
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बेवज़ह की रार में मारा गया। मैं यहाँ बेकार में मारा गया।। कोई सुनता है ये कैसे मान लें सर अगर दीवार में मारा गया।। बस अहिल्या ही सदा शापित हुई इंद्र कब व्यभिचार में मारा गया।। देह का क्या बेवज़ह रूठी रही और मन मनुहार में मारा गया।। काश नफ़रत सीख जाता साहनी इब्तिदा-ए- प्यार मे मारा गया।। सुरेश साहनी, कानपुर
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लाख मुझको नदी समझता था पर मिरी तिश्नगी समझता था।। दिल उसे देवता न कह पाया वो मुझे आदमी समझता था।। दिल पे जो ज़ख़्म दे गया इतने इक वही दर्द भी समझता था।। दरअसल नूर था उसी दर पर मैं जहाँ तीरगी समझता था।। आशना है अज़ल से वो मेरा और मैं अजनबी समझता था।। उफ़ वो गुफ्तारियाँ निगाहों की मैं उसे ख़ामुशी समझता था।। हाँ बहुत बाद में कहा उसने इक उसे साहनी समझता था।। सुरेश साहनी अदीब 9451545132
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लोग बेशक़ जहीन थे उनमें। बस वहाँ आदमी न थे उनमें।। जाने कितने महीन थे उनमें। हम ही तशरीह-ए-दीन थे उनमें।। तीरगी सी लगी न जाने क्यों सब सितारा-जबीन थे उनमें।। जो भी मिलता था बस तकल्लुफ़ से लोग थे या मशीन थे उनमें।। सब वहाँ शोअरा थे अच्छा है पर कहाँ हाज़रीन थे उनमें।। महफ़िले-कहकशां कहें क्यों कर दिल के कितने हसीन थे उनमें।। सब थे तुर्रम सभी सिकन्दर थे साहनी ही रहीन थे उनमें।। ज़हीन/समझदार महीन/शातिर,कूट चरित्र तशरीह-ए-दीन/ स्पष्ट,ईमान वाले तीरगी/अंधेरा सितारा-जबीन/रोशन मस्तक तकल्लुफ़/औपचारिकता शोअरा/कविगण हाज़रीन/दर्शक वृन्द कहकशां/निहारिका, आकाशगंगा तुर्रम/बड़बोले सिकन्दर/महत्वाकांक्षी रहीन/बंधुआ, साधारण सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
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जाने कितने ज़ख़्म दिल पर दे गया। जो मुझे ग़म के समुंदर दे गया।। ले गया नींदे उड़ाकर बेवफा पर मुझे ख़्वाबों के लश्कर दे गया।। गुलबदन कहता था मुझको प्यार से हाँ वही कांटों का बिस्तर दे गया।। ले गया सुख चैन जितना ले सका उलझनें लेकिन बराबर दे गया।। सादगी क़ातिल की मेरे देखिये मुझको उनवाने- सितमगर दे गया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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अक्सर ये उजाले हमें गुमराह करे हैं। ख़ुदग़र्ज़ हवाले हमें गुमराह करे हैं।। भाई न बिरादर न हैं ये काफ़िले वाले ये ख्वामख्वाह साले हमें गुमराह करे हैं।। क़ातिल पे भरोसा हुआ जाता है सरीहन जब चाहने वाले हमें गुमराह करे हैं।। मत ढूंढिये मत खोजिये यूँ चटपटी खबरें ये मिर्च-मसाले हमें गुमराह करे हैं।। शफ्फाक लिबासों से ज़रा दूर रहा कर दिल के यही काले हमें गुमराह करे हैं।। गुमराह/भ्रमित, ख़ुदग़र्ज़/स्वार्थी हवाले/सम्बन्ध, दृष्टान्त ख़्वाहमखाह/जबरदस्ती, इच्छा के बग़ैर सरीहन/जानबूझकर शफ्फाकलिबास/ सफेदपोश, उजले वस्त्र धारी सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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केहू बिखर गइल इहाँ केहू उजर गइल। देखलीं न केहू प्यार में परि के संवर गइल।। मिलला के पहले इश्क में दीवानगी रहल भेंटली त सगरो भूत वफ़ा के उतर गइल।। अईसन न जिन्नगी मिले केहू के रामजी जवानी उहाँ के राह निहारत निकर गइल।। कहलें जफ़र की जीन्नगी में चार दिन मिलल चाहत में दू गइल दू अगोरत गुजर गइल।। उनका के देख लिहलीं करेजा जुड़ा गइल उ हमके ताक दिहलें हमर प्रान तर गइल।। भटकल भीनहिये सांझ ले उ घर भी आ गईल बा बड़ मनई जे गिर के दुबारा सम्हर गईल।। हम आपके इयाद में बाटी इ ढेर बा इहे बहुत बा आँखि से दू लोर ढर गइल।। - Suresh SahaniU
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गो क़दम देखभाल कर रखते दिल कहाँ तक सम्हाल का4 रखते आख़िरी सांस की दुहाई दी क्या कलेजा निकाल कर रखते कोई सुनता तो हम सदाओं को आसमां तक उछाल कर रखते ज़िन्दगी दे रही थी जब धोखे मौत को खाक़ टाल कर रखते फ़ितरते-हुस्न जानते तब क्यों इश्क़ का रोग पाल कर रखते नेकियाँ पुल सिरात पर मिलती हम जो दरिया में डाल कर रखते साहनी मयकदे में आता तो दिल के शीशे में ढाल कर रखते साहनी सुरेश कानपुर
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हमारे दिन हमें क्यों कर पता हो। अगर कल दुर्दशा का तर्जुमा हो।। मुहब्बत कर के गलती की है मैंने महज इस जुर्म की कितनी सजा हो।। हमें तुम याद क्यों आते हो इतना तुम्हे जबकि हमारी याद ना हो।। ये मत सोचो तुम्हे मैं चाहता हूँ हमें तुमने अगर धोखा दिया हो।। मेरे स्कूल में पढ़ता था वो भी बहुत अच्छा था जाने अब कहाँ हो।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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अब झूठों का ज़ोर सुनाई पड़ता है। सच कितना कमजोर सुनाई पड़ता है।। भीड़भाड़ में जब मैं तन्हा होता हूँ सन्नाटे का शोर सुनाई पड़ता है।। प्यार मुहब्बत की तोपों के जादू से दिल्ली से लाहौर सुनाई पड़ता है।। कहता तो है मैं किसान के हक़ में हूँ क्यों मुझको कुछ और सुनाई पड़ता है।। चोरों लम्पट और उठाईगीरों का किस्सा चारो ओर सुनाई पड़ता है।। काहे को साहब की जय चिल्लाते हो मुझको आदमखोर सुनाई पड़ता है।। तुम सुरेश को चौकीदार बताते हो ईंन कानों को चोर सुनाई पड़ता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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नयन यूँ ही नहीं हैं डबडबाये। बहुत दिन हो गये थे मुस्कुराये।। तुम्हारी याद कब आयी न पूछो बताओ क्या मुझे तुम भूल पाये।। कभी तुम आशना थे ये तो तय है पता मेरा कहाँ से ढूंढ लाये।। जो दिल के घाव हैं भरने लगे हैं न याद आकर कोई फिर से सताये।। जिसे दिल से गये मुद्दत हुई हो बला से वो इधर आये न आये।। सुरेश साहनी
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जितनी तेजी से विज्ञान तरक्की कर रहा है।मानव उससे भी दोगुनी तेजी से विज्ञान पर लदा जा रहा है।कम्प्यूटर और अभियांत्रिकी का गठजोड़ एक दिन इंसान को पूरी तरह बेरोजगार बना देगा, इस बात को लेकर ऑस्ट्रेलिया अमेरिका के लोग भले चिन्ता करें विकासशील और पिछड़े देश इसी तरह की चर्चा को प्रगति मान कर कहते हैं कि, तुम तो बौड़म हो। तुम्हे कछू पता भी है अमरीका जापान में लोग अपने हाथ से शौचते भी नहीं हैं। ख़ैर हम तो विश्वगुरु ठहरे। अपने देश में भी अपने हाथ से काम करने वाले बहुत अच्छे नहीं माने जाते । इसीलिए हमारे नए नेतागण रोज़गार के हर क्षेत्र में संख्याबल कम कर रहे हैं।उनका साफ साफ कहना है करप्शन फ्री समाज की स्थापना तभी सम्भव है जब सेवाओं का सांगोपांग मशीनीकरण कर दिया जाये। और इस की शुरुआत भारत में लगभग हो चुकी है। इस समय देश में सेवा के लगभग हर क्षेत्र में छंटनी का दौर चल रहा है और नयी भर्तियों पर रोक तो पहले से लगी हुई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारतीय रेल है। एक समय मे दुनिया मे सबसे अधिक रोजगार देने वाला संस्थान में अब गार्ड्स और लोको पायलट की भर्तियां भी नहीं के बराबर हो र...
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भगत सिंह के सहयोगी थे वीरों के सरदार जी। राजगुरु सुखदेव सरीखे थे जीपी कटियार जी।। पावन है बिल्हौर हमारा पावन अपनी खजुरी वीर प्रसूता धरा जहाँ की है धरती की धूरी कितने वीर यहाँ जन्मे हैं कोई इससे बुझे महादीन थे सत्तावन में अंग्रेजों से जूझे अपने गया प्रसाद इन्ही घर आये बन उजियार जी आज़ादी के हित फहराई ऐसी एक पताका बम्ब बनाकर दिया भगत को ऐसा करो धमाका जो गूँजें उस इंक़लाब से लन्दन तक थर्राये अविजित अंग्रेजी शासन की चूलें तक हिल जाएं किया देश की आज़ादी का स्वर्णिम पथ तैयार जी अंग्रेजी जेलों में थे सत्ताइस साल बिताए सही यातना किंतु न अपने मुख पर उफ़ तक लाये वीर शिवा की संतानें कब अरि सम्मुख झुकती हैं वीरों की गति पाकर अंतिम मंजिल ही रुकती है उनकी स्मृति के वाहकहैं अपने क्रान्ति कुमार जी
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तुम भी हमको कहाँ समझते हो। जाने किसकी जुबाँ समझते हो।। क्या नज़र है कि तुम हमें जुगनू ग़ैर को कहकशाँ समझते हो।। अब ये आलम है वज्मे-यारब में यार को खामखाँ समझते हो।। ज़ख्म दिल के कुरेदने वाले तुम किसे नातवाँ समझते हो।। यूँ भी दुनिया सरायफ़ानी है हैफ़ इसको मकां समझते हो।। हम हैं मशरूफ़ घर गिरस्ती में और तुम दूरियाँ समझते हो।। वो सराबां तो ख़ुद भी तिशना है तुम जिसे आबदां समझते हो।। सुरेश साहनी,कानपुर
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बारिशों में भी सुलग पड़ता हूँ। नींद आती है कि जग पड़ता हूँ।। अजनबीपन है तेरी दुनिया में क्यों मै अपनों में अलग पड़ता हूँ।। पाँव के कांटे निकाले जिसके वो ये कहता है कि पग पड़ता हूँ।। क्यों दबाते हैं ये कमज़र्फ मुझे क्या मैं कमजोर सी रग पड़ता हूँ।। मुझको ग़ैरों से कोई खौफ़ नहीं हर किसी से गले लग पड़ता हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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एक अदद मीत के लिए तरसे। उम्र भर प्रीत के लिए तरसे।। जिस तरह डूब कर ख़यालों में एक कवि गीत के लिये तरसे।। इस क़दर शोर था रवायत में कान संगीत के लिए तरसे।। हार में जीत है मुहब्बत की हार कर जीत के लिए तरसे।। दिल के सौदे में जान देने की वारुणी रीत के लिए तरसे।। मन को मथता है मन्मथी मौसम श्याम नवनीत के लिए तरसे।। वो बदलता है रोज़ रस्मे वफ़ा हम महज़ रीत के लिए तरसे।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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न सँवर सके न सुधर सके गए तुम तो हम भी गुज़र गए तेरे साथ जितना चले चले तेरे बाद जैसे ठहर गए।। तेरी तरह हम न बदल सके रहे जैसे वैसे ही रह गये तेरे साथ चलना था दो कदम तेरे बाद थम के ही रह गये कभी मंज़िलों ने भुला दिया कभी छोड़ राहगुज़र गए।। न सँवर...... तुम्हें देखना है तो देख लो यहीं पास अपनी मज़ार है दो घड़ी सुकून से बैठ लो वो ख़मोशियों का दयार है फ़क़त इसलिए कि पता रहे जो अदीब थे वो किधर गए।।न सँवर...... यहाँ आके आँखें न नम करो तुम्हें किसने बोला कि ग़म करो जिसे प्यार था वो चला गया तो क्यों पत्थरों को सनम करो जो असीर थे वो नहीं रहे तेरे हुस्न के भी असर गए।।न सँवर......
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ज़िंदा रहना सीख रहा हूँ। कुछ ना कहना सीख रहा हूँ।। अवशेषों सा धीरे धीरे मन से ढहना सीख रहा हूँ।। व्यर्थ किसी से आशा रखना अपनेपन का भाव व्यर्थ है स्वार्थ निहित है सबके अपने सम्बन्धों का मूल अर्थ है बहुत सहे आरोप किन्तु अब स्वयं उलहना सीख रहा हूँ।। चाँदी के चम्मच वालों को घर बैठे मिलती है दीक्षा किंतु समर्पित हृदय दीन की ली जाती है नित्य परीक्षा अविश्वासमय सम्बन्धों में नित नित दहना सीख रहा हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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मुझे बहर से बाहर बोला दुनिया ने। बस भाटों को शायर बोला दुनिया ने।। जो आँखों में धूल झोंकना सीख गया उसको ही बाज़ीगर बोला दुनिया ने।। जो लाशों पर चलकर दिल्ली पहुँचा है उसको कहाँ गुनहगर बोला दुनिया ने।। जिसके ढाई आखर दुनिया पढ़ती है उसको निपट निरक्षर बोला दुनिया ने।। कुछ तो बात रही होगी उस सूरा में जो उनको दीदावर बोला दुनिया ने।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545142
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हूक सी दिल मे उठा करती रही। जब कमी तेरी खला करती रही।। हर नज़र खुदगर्ज है यह देखकर जीस्त ख़ुद को आईना करती रही।। हुस्न को फुर्सत कहाँ थी ध्यान दे आशिक़ी नाहक वफ़ा करती रही।। हाल उन बेटों ने पूछा ही कहाँ माँ मगर फिर भी दुआ करती रही।। तंज, फ़िकरे हिर्स नज़रों की चुभन बेबसी क्या क्या सहा करती रही।। क्या पता था है मुदावा मौत में ज़िन्दगी कितनी दवा करती रही।। ग़म हैं लाफानी तेरे यह सोचकर ज़िन्दगी ख़ुद पर हँसा करती रही।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आग पानी में हरदम लगाते रहे। यूँ लगी अपने दिल की बुझाते रहे।। वो ही ख़ामोशियों से सताते रहे। उम्र भर हम जिसे गुनगुनाते रहे।। ख़ूब वादे किये ख़ूब आते रहे। एक हम थे दिलो जां लुटाते रहे।। कोई झूठी तसल्ली भी देता तो क्यों हालेदिल हम बुतों को सुनाते रहे।। कौन खाता तरस या पिघलता तो क्यों अश्क हम पत्थरों पर बहाते रहे।। साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
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उसके दीद की ख़्वाहिश भी है। और उसी से रंजिश भी है।। शायद वो तफ़रीह पे आयें बागों में आराइश भी है।। कुछ अपना भी दिल कहता है कुछ उसकी फरमाइश भी है।। रुसवाई का डर है लेकिन लाज़िम आज नुमाइश भी है।। इश्क़ नहीं है इतना आसां इन राहों में लग्ज़िश भी है।। है इज़हार ज़रूरी इसमें और ज़ुबाँ पर बन्दिश भी है।। वो सुरेश भी आशिक है क्या वो तो अहले-दानिश भी है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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एक तरफ हैं छोटे मोटे सपने पाले लोग। एक तरफ हैं ख़्वाब लूट ले जाने वाले लोग।। एक तरफ हैं सीधे सादे भोले भाले लोग।। एक तरफ हैं घात लगाए गड़बड़झाले लोग।। धूसर तन की उजले मन की जनता एक तरफ एक तरफ हैं श्वेत वसन धर मन के काले लोग।। बूट पहन पर कालीनों पर दर्प उगलते झुण्ड इधर सड़क पर खार चूमते पहने छाले लोग।। दिन भर ख़ट कर एक तरफ मजदूरी को तरसे एक तरफ हैं देश लूटते बैठे ठाले लोग।। वतन बेचते नेताओं की महफ़िल उधर सजे इधर मुल्क़ पर मिटते रहते हैं मतवाले लोग।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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सचमुच आईना टूटा है। या कोई सपना टूटा है।। हीर कोई मजबूर हुई क्या या कोई राँझा टूटा है।। नग़में झरतें हैं अश्कों में क्या कोई इतना टूटा है।। दुश्मन हैं तो भी अपने हैं मत कहना रिश्ता टूटा है।। आ सकते हो सहन समझकर दिल का दरवाजा टूटा है।। ख़ूब मियादेग़म से उबरे अब जाकर पिंजरा टूटा है।। मुश्किल ही है फिर जुड़ पाये वो किरचा किरचा टूटा है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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उसे ही मिल गयी है रहनुमाई। शहर में आग जिसने थी लगाई।। समझ लीजै वो नेता बन गया है सभासद है अभी पहले था भाई।। किसे है फ़िक़्र आख़िर कौन था वो बुझी तो अब किसी ने भी बुझाई।। हमारी सिम्त होंगी तीन अंगुली किसी पर एक अंगुली जो उठायी।। चलो अखबार पढ़ कर देखते हैं किसी कोने में तो होगी सच्चाई।। इलेक्शन में कहाँ का भाईचारा बनाते हैं किसी चारे को भाई।। सदा का कोई मतलब ही नहीं है अगर ख़ामोश है उसकी ख़ुदाई।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545432
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अब वो अपने सनम नहीं फिर भी। बेवफ़ाई का ग़म नहीं फिर भी।। तेरा कूचा अदम नहीं फिर भी। जान देने को कम नहीं फिर भी।। आशिक़ी में नहीं मिले तगमे ज़ख़्म सीने पे कम नहीं फिर भी।। जब मिलोगे गले लगा लोगे मुझको ऐसा वहम नहीं फिर भी।। कैसे कह दें कि अब सिवा तेरे और होंगे सनम नहीं फिर भी।। यूज़ एंड थ्रो का अब ज़माना है ऐसा कोई भरम नहीं फिर भी।। जाने क्यों साहनी को पढ़ते हैं उसकी ग़ज़लों में दम नहीं फिर भी।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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वो अपनी सरकार सम्हालें। हम अपना घरबार सम्हालें।। नफ़रत में डूबी है दुनिया हम सब मिलकर प्यार सम्हालें।। तब ज़मीर था खुद्दारी थी अब कैसे किरदार सम्हालें।। लोकतंत्र है राम भरोसे अपना कल अख़बार सम्हालें।। बुद्ध कर्पुरी जेपी गाँधी आख़िर कितनी बार सम्हालें।। चोर सम्हल जायेंगे मितरों कैसे चौकीदार सम्हालें।। अब कितना विश्राम करेंगे प्रभु आकर संसार सम्हालें।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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गया था कब उसे सागर बुलाने। नदी ख़ुद चल के आयी है समाने।। कहाँ थी उसमें ऐसी बेनयाजी नहीं जाते थे हम ही दिल लगाने।। तुम्हें हम मान लेते हैं सही पर गलत हमको लगे तुम ही बताने।। हक़ीक़त से फ़क़त हम रूबरू हैं ज़हां को चाहिये झूठे फ़साने।। नहीं है जाविदानी इश्क़ में अब गया वो दौर गुज़रे वो ज़माने।। वफ़ा का इम्तिहां हम दे तो दें पर तुम्हें आना पड़ेगा आज़माने।। अजब है साहनी इस दौर में भी सुनाता है मोहब्बत के तराने।। सुरेश साहनी, अदीब, कानपुर 9451545132
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वेदने अब मौन रहना सीख लो हैं कुटिल खूंखार अब संवेदनायें क्या करोगे कौन सुनता हैं व्यथायें सब हँसेंगे जोड़कर अथ वा तथायें लाख तुम निर्दोष या निश्छल रहोगे लोग गढ़ लेंगे कई कुत्सित कथायें चुप न हो बस कुछ न कहना सीख लो अब नहीं सुनती बधिर आत्मीयतायें....... दर्द बांटेगा कोई यह भूल जाओ हर व्यथा हर पीर को उर में छिपाओ बाँटने से पीर बँटती भी नहीं है व्यर्थ अपने आँसुओं को मत लुटाओ प्रेम में चुपचाप दहना सीख लो क्या पता वन वीथिकाएँ फिर बुलायें.......
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तुम्हारी ख़्वाहिशों से थक गया हूँ। बड़ी फरमाइशों से थक गया हूँ।। निभाने की कोई सीमा तो होगी कि अब गुंजाइशों से थक गया हूँ।। ये क्या दिन रात का सजना संवरना बहुत आराईशों से थक गया हूँ।। अभी दरकार है कुछ ज़हमतों की बड़ी आसाइशो से थक गया हूँ।। मुझे बेलौस कुछ तन्हाईयाँ दो कि इन फहमाइशों से थक गया हूँ।। सुकूँ के वास्ते दो ग़ज़ बहुत है बड़ी पैमाइशों से थक गया हूँ।। भले तन साफ है पर साहनी जी दिली आलाइशों से थक गया हूँ।। ख़्वाहिश/ इच्छा, फरमाइश/मांग, गुंजाइश/सम्भावना,क्षमता, आराइश/श्रृंगार, दरकार/आवश्यकता ज़हमत/कष्ट, तन्हाई/एकांत आसाइस/सुविधाएँ, आराम, बेलौस/निस्पृह,बेमुरव्वत फहमाइश/ सलाह, समझाना, चेतावनी सुकूँ/शांति, पैमाइश/नाप-जोख, भूसंपत्ति पैमाइश, आलाइश/मैल, प्रदूषण सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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हम तो गज़लों के ढेर कहते हैं। सिर्फ़ ऊला के शेर कहते हैं।। काफिया औ रदीफ़ क्या मालूम शब्द कुछ बेर बेर कहते हैं।। कोई चरबा करे कोई चोरी करके कुछ हेर-फेर कहते हैं।। साठ की उम्र और दिलबाज़ी जब जगे तब सबेर कहते हैं।। आप के फाख्ते उड़ें बेशक़ हम तो तीतर बटेर कहते हैं।। आप ग़ालिब के हैं चचा तो क्या सब हमें भी दिलेर कहते हैं।। साहनी हैं मिजाज़ के नाज़ुक शेर लेकिन कड़ेर कहते हैं।। ऊला/शेर की प्रथम पंक्ति काफिये/समान ध्वनि वाले शब्द रदीफ़/ अन्त्यानुप्रासिक शब्द या शब्द समूह बेर बेर/ बार बार, चरबा/नकल दिलबाज़ी/ दिल्लगी, लम्पटगिरी ग़ालिब/प्रभाव , कड़ेर/ कठोर
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शम्स का पाला बदलना ठीक है। बर्फ़ रिश्तों में पिघलना ठीक है।। क्यों कुहासे की रजाई में छुपे सुब्ह सूरज का निकलना ठीक है।। रंज था जो तुम निगाहों से गिरे हाँ मगर गिर कर सम्हलना ठीक है।। शीत से लड़ने की ज़िद मत ठानिये क्या बुढ़ापे में उछलना ठीक है।। कोहरा है धुँध है सर्दी भी है घर मे रहिये क्या टहलना ठीक है।। जिनको बीपी है शुगर है ध्यान दे खून का कितना उबलना ठीक है।। वक़्त के साँचे में मत ढल साहनी धार के विपरीत चलना ठीक है।। सुरेश साहनी,कानपुर 9451545132
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इसी जगत में लाओगे क्या। फिर इन्सान बनाओगे क्या।। आख़िर इस आने जाने में प्रभु तुम कुछ पा जाओगे क्या।। अबलायें फिर खतरे में हैं अब भी दौड़े आओगे क्या।। दीन हीन है धर्म धरा पर आकर वचन निभाओगे क्या।। दुनियादारी के पचड़ों में फिर से हमें फँसाओगे क्या।। पूछा है नाराज़ न होना फिर गलती दोहराओगे क्या।। सुरेश साहनी , अदीब कानपुर 9451545132
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मुद्दत हुयी ना उसने कोई राब्ता रखा। ना बातचीत का ही कोई सिलसिला रखा।। इक बार जो मिला तो बड़ी बेदिली के साथ शिकवे तमाम गुफ़्तगू में या गिला रखा।। बातें हुईं तो किस तरह इतने से जानिये मैंने ग़ज़ल सुनाई तो उसने क़ता रखा।। आया है मेरे फातिहा पे बन सँवर के वो जीते जी ना मिला ना कोई वास्ता रखा।। सारे रकीब उससे रहे आशना मगर इक साहनी का नाम बड़ा बेवफ़ा रखा।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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हूबहू मुझ सा ही किरदार कोई है मुझमें। या तो मेरा लिया अवतार कोई है मुझमें।। मैं तो जानूँ हूँ गुनहगार कोई है मुझमें। लोग कहते हैं कि अबरार कोई है मुझमें।। मैं तो काफ़िर हूँ मुझे उस पे यकीं छोड़ो भी सब ये समझे हैं कि दीं-दार कोई है मुझमें।। शौक़ इतना है अदीबों से शनासायी का मैं तो नादार हूँ ज़रदार कोई है मुझमें।। मेरे ही दिल मे मुझे मैं नहीं दिखता शायद तीरगी की बड़ी दीवार कोई है मुझमें।। आईना देख के मैं ख़ुद भी सहम उठता हूँ गोया मुझसे बड़ा खूँखार कोई है मुझमें।। छोड़ कर दैरोहरम मैक़दे चल देता है मैं नहीं शेख़ वो मयख़्वार कोई है मुझमें।। हूबहू/एक समान क़िरदार/ चरित्र, व्यक्तित्व, अबरार/पवित्र, नेकदिल काफ़िर/नास्तिक, दीं-दार/धार्मिक, अदीब/साहित्यकार, शनासाई/ परिचय, नादार/निर्धन, ज़रदार/धनवान, तीरगी/अँधेरा, गोया/जैसे कि, खूँखार/भयानक, दैरोहरम/मन्दिर-मस्जिद, मैकदा/शराबघर, मयख्वार/ शराबी सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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बचना बजते गालों से। झूठों और दलालों से।। हँस कर लुटने जाते हो मज़हब के रखवालों से।। रिश्ते अब क्षणभंगुर हैं बेशक़ हों घरवालों से।। उनको दौलत हासिल है हम जैसे कंगालों से।। सिर्फ़ नकलची लिखते हैं सावधान नक्कालों से।। पूँछ लगा कौवे भी अब दिखते मोर मरालों से।। ये सचमुच वह दौर नहीं है बचना ज़रा कुचालों से।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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पहले कोई नया ख़याल मिले। तब तो अपनी कलम को चाल मिले।। हुस्न कितना भी बेमिसाल मिले। इश्क़ वाले ही लाज़वाल मिले।। ज़िन्दगी चार दिन रही यारब मौत को फिर भी इतने साल मिले।। सरनिगू हैं यहाँ पे हर पैकर कोई तो सिरफिरा सवाल मिले।। मान लेंगे कि उसने याद किया जब कि शीशे में एक बाल मिले।। कैसे मानें मेरे ख़याल में है एक दिन तो वो बेख़याल मिले।। साहनी खाक़ ज़िन्दगी है जो हर क़दम पर न एक जाल मिले।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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उफ़ ये ठण्डी धूप के दिन आदमी को क्या सुकूँ दें रात भी दहकी हुई ठिठुरन समेटे जिंदगी जैसे जलाकर राख करना चाहती है जेब इतनी ढेर सारी हैं पुरानी जैकेटों में पर सभी ठंडी गुफायें क्या हम अपने मुल्क में हैं!!!! कौन है यह लोग जो फिर लग्जरी इन गाड़ियों से होटलों में , रेस्तरां में जश्न जैसी हरकतों से रात में भी पागलों से शोर करते फिर रहे हैं।। सुरेशसाहनी