तुम भी हमको कहाँ समझते हो।
जाने किसकी जुबाँ समझते हो।।
क्या नज़र है कि तुम हमें जुगनू
ग़ैर को कहकशाँ समझते हो।।
अब ये आलम है वज्मे-यारब में
यार को खामखाँ समझते हो।।
ज़ख्म दिल के कुरेदने वाले
तुम किसे नातवाँ समझते हो।।
यूँ भी दुनिया सरायफ़ानी है
हैफ़ इसको मकां समझते हो।।
हम हैं मशरूफ़ घर गिरस्ती में
और तुम दूरियाँ समझते हो।।
वो सराबां तो ख़ुद भी तिशना है
तुम जिसे आबदां समझते हो।।
सुरेश साहनी,कानपुर
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