ज़िंदा रहना सीख रहा हूँ।
कुछ ना कहना सीख रहा हूँ।।
अवशेषों सा धीरे धीरे
मन से ढहना सीख रहा हूँ।।
व्यर्थ किसी से आशा रखना
अपनेपन का भाव व्यर्थ है
स्वार्थ निहित है सबके अपने
सम्बन्धों का मूल अर्थ है
बहुत सहे आरोप किन्तु अब
स्वयं उलहना सीख रहा हूँ।।
चाँदी के चम्मच वालों को
घर बैठे मिलती है दीक्षा
किंतु समर्पित हृदय दीन की
ली जाती है नित्य परीक्षा
अविश्वासमय सम्बन्धों में
नित नित दहना सीख रहा हूँ।।
सुरेश साहनी, कानपुर
9451545132
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