लोग बेशक़ जहीन थे उनमें।

बस वहाँ आदमी न थे उनमें।।


जाने कितने महीन थे उनमें।

हम ही तशरीह-ए-दीन थे उनमें।।


तीरगी सी लगी न जाने क्यों

सब सितारा-जबीन थे  उनमें।।


जो भी मिलता था बस तकल्लुफ़ से

लोग थे या मशीन थे उनमें।।


सब वहाँ शोअरा थे अच्छा है

पर कहाँ हाज़रीन थे उनमें।।


महफ़िले-कहकशां कहें क्यों कर

दिल के कितने हसीन थे उनमें।।


सब थे तुर्रम सभी सिकन्दर थे

साहनी ही रहीन थे उनमें।।


ज़हीन/समझदार

महीन/शातिर,कूट चरित्र

तशरीह-ए-दीन/ स्पष्ट,ईमान वाले

तीरगी/अंधेरा

सितारा-जबीन/रोशन मस्तक

तकल्लुफ़/औपचारिकता

शोअरा/कविगण

हाज़रीन/दर्शक वृन्द

कहकशां/निहारिका, आकाशगंगा

तुर्रम/बड़बोले

सिकन्दर/महत्वाकांक्षी

रहीन/बंधुआ, साधारण


सुरेश साहनी , कानपुर

9451545132

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