किसलिये अजनबी ऊज़रे को भजें उससे बेहतर है हम सांवरे को भजें।। हमसे कहता है जो हर घड़ी मा शुचः हम उसे छोड़ क्यों दूसरे को भजें।। उसके मुरली की तानों में खोये हैं हम किसलिये फिर किसी बेसुरे को भजें।। बृज का कणकण मेरे यार का धाम है तब कहो अन्य किस आसरे को भजें।। जितना नटखट है उतना ही गम्भीर है हम उसे छोड़ किस सिरफिरे को भजें।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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Showing posts from November, 2025
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इस रहगुजर के बाद कोई रहगुज़र है क्या। अंतिम सफ़र के बाद भी कोई सफ़र है क्या।। जो कुछ भी हो रहा है मेरी जिंदगी के साथ मैं तो बता न पाऊंगा उसको ख़बर है क्या।। तुम कह रहे हो एक दिन तूफान आएगा खामोशियों में वाकई इतना असर है क्या।। क्यों कह रहा है आप मुझे जानते नहीं क्या सच में तिफ्ल इतना बड़ा नामवर है क्या।। उनकी गली में आके अदीब अजनबी लगा आमद से मेरी वो भी अभी बेखबर है क्या।। देते थे दर्दे दिल की दवा वह कहां गए अब भी वहीं दुकान वहीं चारागर है क्या ।। गजलों में उसकी हुस्न नहीं ज़ौक भी नहीं ये साहनी कहीं से कोई सुखनवर है क्या।। सुरेश साहनी कानपुर ९४५१५४५१३२ 23 मई2022
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यूँ भी मुझमें न कर तलाश मुझे। ढूंढ अपने ही आसपास मुझे।। मैं कहीं देवता न हो जाऊं इतना ज्यादा भी मत तराश मुझे।। मैं मेरी सादगी न खो बैठूँ रास आता नहीं विकास मुझे।। मैं जहां हूँ वहीं बहुत खुश हूँ मुझको रहने दे अपने पास मुझे।। साहनी खुश है आम ही रहकर कह दो समझें न लोग ख़ास मुझे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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जब अज़ल से ही खुशनसीब रहे। कैसे कह दें कि हम ग़रीब रहे।। ख़ानदानी रहे हसीब रहे। यानि अगियार भी हबीब रहे।। दौरे हाज़िर में सब नकीब रहे। हम ही हर हाल में अदीब रहे।। अपने रिश्ते भी कुछ अजीब रहे। लड़ झगड़ कर भी हम क़रीब रहे।। कुछ तो शीरी जुबान है अपनी फिर गले से भी अंदलीब रहे।। होके मयख़्वार भी गये जन्नत हम न नासेह न तो ख़तीब रहे।। अज़ल/आरंभ, ग़रीब/दीन हीन, कमजोर, हसीब/श्रेष्ठ, सम्मानित , दौरे-हाज़िर/वर्तमान, नकीब/चारण, शीरी/मीठी, अंदलीब/बुलबुल, मयख्वार/शराबी, जन्नत/स्वर्ग, नासेह/धर्मोपदेशक, ख़तीब/फतवा जारी करने वाला सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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देखो ना ये वही जगह है जहाँ मिला करते थे हम तुम मगर अब यहाँ बाग नहीं है आमों के वह पेड़ नहीं हैं महुवे की वह गन्ध नहीं है आज यहां ऊँचे मकान हैं सुन्दर सुन्दर प्यारे प्यारे अगर प्रेम हो रह सकते हैं अपने जैसे कितने सारे तुम्हें याद है शायद हो तो कह सकती हो नहीं नहीं पर खोजें हम तो मिल सकता है बिसरा बचपन यहीं कहीं पर यहीं कहीं पर हम दोनो ने एक दूसरे को चाहा था तुमने अपनी गुडिया को जब मेरे गुड्डे से ब्याहा था सब कुछ याद मुझे है लेकिन तुमको भी स्मृत तो होगा इसी जगह पर खुश होते थे सींकों के हम महल बनाकर और आज है रंगमहल पर वही नहीं है सूनी सूनी दीवारें हैं खुशी नहीं है वही नहीं है जिसको पाकर हम अनुबन्धित हो सकते थे जो सपने हमने देखे थे वह सपने सच हो सकते थे आज तुम्हारी आँखों मे कोई विस्मय है लोक-लाज से, शील-धर्म से प्रेरित भय है मै अवाक! होकर, औचक यह सोच रहा हूं तुम तुम हो या कोई और इसमे संशय है लिंग-भेद तो सम्पूरक है,आवश्यक है सत है, चित है, सदानन्द है सहज योग है, स्वयम सृष्टि है बचपन में हम अनावृत ही साथ पले है, साथ बढे़ है और आज परिधान सुशोभित हम दोनों की देह-यष्टि है पर समा...
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कोई बेकल घूम रहा है बस्ती में। वो भी पागल घूम रहा है बस्ती में।। अब तो हर दल घूम रहा है बस्ती में।। मानो चम्बल घूम रहा है बस्ती में।। हवसी आदमखोर दरिंदे वहशी सब गोया जंगल घूम रहा है बस्ती में।। रोपे थे जो कीच कमल की आशा में बनकर दलदल घूम रहा है बस्ती में।। बेटे भटक रहे हैं लाल दुपट्टों में माँ का आँचल घूम रहा है बस्ती में।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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बहिरे कान के मालिक बा झूठी शान के मालिक बा समझत बा ऊ जितला पर हिंदुस्तान के मालिक बा खेती घान के मालिक बा घर खरिहान के मालिक बा अब परधान के बेंवत का ऊ परधान के मालिक बा कब्जा बा हर डीहे पर उहे थान के मालिक बा उहो फुंकाई आख़िर में जे शमशान के मालिक बा चोर लुटेरा काल्हि रहल अब विधान के मालिक बा सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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एक बार एक तथाकथित संस्कृति साहित्य रक्षक और सुप्रतिष्ठ ऑनलाइन काव्यगोष्ठी चलाने वाले समूह से मुझे एकल काव्यपाठ का आमंत्रण मिला। मुझे भी अपने आप में बड़े कवि होने का गुमान हो आया। ये अलग बात है कि कोरोनज ऑनलाइन गोष्ठियों से तब तक विरक्ति अंकुरित हो चुकी थी। फिर भी संचालन करने वाले का आभामंडल , नाम से जुड़े सहस्त्रों तथाकथित सम्मान, अनेकों कलमकारियों के स्नेहिल प्रशस्तियों से विभूषित स्वघोषित ब्रम्हाण्डीय व्यक्तित्व की आभासी उपस्थिति में काव्यपाठ की कल्पना ही रोमांचित करने वाली थी।मैंने आमंत्रण के प्रति आभार दिनाँक सहित पोस्ट कर दिया। किंतु दो दिन बाद सन्देश आया कि इसे अपनी वाल के साथ अन्य ग्रुप में भी पोस्ट करें।फिर उसी दिन एक और सन्देश मुझे व्हाट्सएप पर प्राप्त हुआ जिसमें निर्देश दिया गया था कि आप समूह द्वारा प्रेषित अगले 150शब्दों के संदेश को अपनी वाल और समूह की वाल पर पोस्ट करते हुए शेयर करें।अगले सन्देश ये समझिए कि मेरे नाम से जारी एक आभार पत्र था जिसमें मैं साहित्यिक अनाथ के रूप में समूह संचालक को साहित्य के भगवान के रूप में सम्बोधित कर रहा था कि ''...
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बेशक़ फ़ितरत से आवारा मैं ही था। घर के होते भी बंजारा मैं ही था।। बेशक़ अपनी मन्नत तुमको याद न् हो आसमान से टूटा तारा मैं ही था।। इन अश्कों के सागर किसने देखे हैं हैफ़ समुंदर जितना खारा मैं ही था।। मैं ही ढूंढ़ रहा था मुझको साहिल पर सागर मैं था और किनारा मैं ही था।। जाने कितने डूबे तेरी आँखों में केवल जिसने पार उतारा मैं ही था।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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मत जिओ यूँ उदासियाँ लेकर बंद कमरे में खाँसीयां लेकर क्या मिलेगा जो सत्य बोलोगे वो भी बदले में फांसियां लेकर उसने फ़रियाद सुन तो ली लेकिन सो गया फिर उबासियाँ लेकर झोंपड़ी है चला दो बुलडोजर क्या मिलेगा तलाशियाँ लेकर इनकी क़लमें अभी क़लम कर दो कल न चीखें ख़ामोशियाँ लेकर कैसे माने ये कौम ज़िन्दा है इस क़दर ज़ख़्मे-यासियां लेकर साहनी वक़्त का सिकन्दर भी कब गया दास दासियाँ लेकर सुरेश साहनी कानपुर 9451545132