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Showing posts from November, 2024
 वो आशना था मगर अजनबी लगा मुझको। रहा तो दिल में मगर ग़ैर भी लगा मुझको।। अज़ाब क़ुर्बतों में उसकी जो मिले यारब उसे कहाँ से कहूँ ज़िन्दगी  लगा मुझको।।साहनी
 दौर वो गुज़रे ज़माने वाले । फिर नहीं लौट के आने वाले।। याद आते हैं भला किस हक़ से हँस के अपनों को भुलाने वाले।। दिल के सचमुच वो बड़े होते है ग़म के अनमोल ख़ज़ाने वाले।।
 तुम्हारे साथ आना चाहते हैं। तुम्हीं से दिल मिलाना चाहते हैं।। तमन्ना है तुम्हारे अश्क़ पी लें तुम्हारे ग़म को खाना चाहते हैं।। ज़हां की भीड़ में तुम खो न जाना तुम्हें हम सच मे पाना चाहते हैं।।
 ज़हां भर को मगन रखते रहे हो। सनम कितने नयन रखते रहे हो।। हृदय-पाषाण में सम्भव नहीं है कहाँ फिर अश्रु-घन  रखते रहे हो।।साहनी
 इश्क़ था जबकि छलावा तेरा। दिल को भाता था दिखावा तेरा।। झूठ था फिर यकीं लायक था दरदेदिल का वो मदावा तेरा।। आजमाऊँ तो ख़ुदा झूठ करे  जाँनिसारी का ये दावा तेरा।। मैं नहीं कोई बहक सकता था इतना सुंदर था भुलावा तेरा।। जबकि मक़तल ही था मंज़िल अपनी इक बहाना था बुलावा तेरा।। ऐ ख़ुदा तू है अगर कुजागर तो ये दुनिया है कि आँवा तेरा।। साहनी ही तो गुनहगार नहीं उसमें पूरा था बढ़ावा तेरा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 जिस्म कोई मकान है शायद। रूह इक मेहमान है शायद ।। दर हक़ीक़त ख़ुदा ज़मीं पर है ये जहाँ आसमान है शायद।। कम-सुखन हुस्न तो नहीं होता इश्क़ ही बेज़ुबान है शायद।।
 अहले दिल को क़रार देती है। मुम्बई सच में प्यार देती है।। क़द्र करती है मेहनतकश की ज़िंदगानी संवार देती है।।साहनी
 पुष्प पथ में बिछाये हैं रख दो चरण। आपसे स्नेह का है ये पुरश्चरण।।   प्रीति के पर्व का यह अनुष्ठान है दृष्टि का अवनयन लाज सोपान है सत्य सुन्दर की सहमति है शिव अवतरण।। पुष्प पथ में बिछायें हैं रख दो चरण।। कुछ करो कि स्वयम्वर सही सिद्ध हो सिद्धि हो और रघुवर सही सिद्ध हो शक्ति बन मेरे भुज का करो  प्रिय वरण।। पुष्प पथ में बिछायें हैं रख दो चरण।।  ओम सत्यम शिवम सुन्दरम प्रीति हो युगयुगान्तर अमर प्रीति की कीर्ति हो लोग उध्दृत करें राम का आचरण।। पुष्प पथ में बिछायें हैं रख दो चरण।।
 सोच रहा हूँ कमी कहाँ थी गीत मेरे  क्यों गये रूठकर माना लिया मैं यायावर हूँ गीत मेरे बंजारे कब थे भले ज़िन्दगी रही द्रोपदी हम गीतों को हारे कब थे सुख का साथ छूटना तय है गीत मुझे क्यों गये छोड़कर।  sahani
 कुछ मुझे देवता समझते हैं। कुछ मुझे बेवफ़ा समझते हैं।। इससे ज़्यादा है मानीखेज़ मगर इक हमें आप क्या समझते हैं।।
 भारत की जीत पर जो सट्टा लगा रहे थे। भारत की साख पर वो बट्टा लगा रहे थे।।
 यार तुमसे दूर होना खल रहा। जीस्त का मजबूर होना खल रहा।। तुम नहीं हो तो सिंदूरी साँझ का यूँ नशे में चूर होना खल रहा।।साहनी
 मुझे तो दोस्त बनाने की बात करता है। वो दुश्मनी भी निभाने की बात करता है।। लगे है मुझको ही मुझ से वो दूर कर देगा किसी के पास न जाने की बात करता है।।
 लगे जा रहे  ट्रेनों में स्पेशल डिब्बे। कम होते जा रहे दिनोदिन जनरल डिब्बे।। बरसातों में ट्रेन हो रही पानी पानी गर्मी में होते हैं निरे निराजल डिब्बे।। इतनी नफ़रत बाँट रही है आज सियासत कहीं न चलवा दें ये सब कम्यूनल डिब्बे।। डिब्बे कुछ बेपटरी भी होते रहते हैं क्यों होने लगते है बेसुध बेकल डिब्बे।। लगती रहती है ट्रेनों में आग निरन्तर क्यों न ट्रेन के साथ लगा दें दमकल डिब्बे।। कभी पिता सी गोद बिठा कर सैर कराते चले ट्रेन तो लगते माँ के  आँचल डिब्बे।। क्या ऐसा होगा जब इंजन नहीं रहेंगे क्या होगा जब रह जायेंगे केवल डिब्बे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जब कि तूने भुला दिया मुझको। भूल से याद भी न आ मुझको।। दूर मुझसे गया गया तो गया अब बहानों से मत बना मुझको।। जब तुझे ही यकीं नहीं तुझ कर फिर भरोसा तो मत दिला मुझको।। और भी हैं तेरे बहुत अपने क्या ज़रूरी है आज़मा मुझको।।
 बदली हवा में ख़ुद को बदलने न लग पड़ें। रंगीनियों को देख मचलने न लग पड़ें।। माना कि वो हसीन है ये तो जवां नहीं इस उम्र में जनाब फिसलने न लग पड़ें।। साहनी सुरेश
 कल विरासत में भी हम मिलेंगे हम ही अज़दाद में कल रहे हैं।। इब्ने आदम बना कर गये हैं हम उसी राह पर चल रहे हैं।।
 अभी उठा ले तू मुझ पे अँगुली कभी तो तुझसे सवाल होगा।  गुनाह करके यूँ शाद मत हो तुझे कल इसका मलाल होगा।।
 मैं जिसे अपना साया समझता रहा। वो ही मुझको पराया समझता रहा।। क्या कहें वो भी निकला किराये का घर मैं जिसे अपनी काया समझता रहा।।साहनी
 अब नया सूरज निकलने से रहा। दर्द का मौसम बदलने से रहा।। इश्क़ में तासीर कल की बात है आह से पत्थर पिघलने से रहा।। होश गोया मयकशी में कुफ़्र है लड़खड़ा कर दिल सम्हलने से रहा।। आपके आने से अब क्या फायदा दिल जवानों सा मचलने से रहा।। खून ठंडा है रगों में क्या कहें अश्क आंखों में उबलने से रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अपनी कविताओं मे जिंदा हैं रमन।  भाव समिधाओं में जिंदा हैं रमन।। आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं वो आज भी गांवों में जिंदा हैं रमन।। प्रीति का मधुमास उनके काव्य में। पीर का आभास उनके काव्य में।। आध्यात्म रामायण रचयिता हैं रमन है निहित इतिहास उनके काव्य में।।
 इश्क़ माना कि मुद्दआ तो था। हुस्न भी ख़ुद में मसअला तो था।। ज़ख़्म दिल पर भले लगा तो था। उस ख़लिश में मगर मज़ा तो था।। सुन लिया शख़्स बेवफा तो था। इश्क़ वालों का आसरा तो था।। हाल सबने मेरा सुना तो था। कौन रोया कोई  हँसा तो था।। क्या कहा सच ने खुदकुशी कर ली क्या कहें कल से अनमना तो था।। जाल फेंका था फिर वही उसने मेरे जैसा कोई फँसा तो था।। मान लेते हैं तुम नहीं कातिल क़त्ल मेरा मगर हुआ तो था।। उसमें ढेरों बुराईयाँ भी थी साहनी आदमी भला तो था।। सुरेश साहनी कानपुर
 लग गया दिल या लगाया क्या कहें। फिर गया दिल या कि आया क्या कहें।। किसलिये थिरके कदम बेसाख़्ता क्या हवाओं ने सुनाया क्या कहें।। ग़ैर अपना क्यों लगे है आजकल दिल हुआ कैसे पराया  क्या कहें।। नींद पर पलकों का पहरा तोड़कर ख्वाब में कैसे समाया क्या कहें।। दुश्मनों को ज़ेब देती है मगर आपने भी आज़माया क्या कहें।। मैं ख्यालों में हँसा तो किसलिये कौन मुझमें मुस्कुराया क्या कहें।। साहनी ने जो न देखा था कभी इश्क़ ने वो दिन दिखाया क्या कहें।। सुरेश साहनी कानपुर
 क्यों लगे है मुझे ज़हां तन्हा। राह तन्हा है कारवां तन्हा।। लोग तो और भी गये होंगे मैं ही जाऊंगा क्या वहाँ तन्हा।। चाँद ने जाके हाथ थाम लिया जब लगा है वो आसमां तन्हा।। दूर तक हैं निशान कदमों के इनमें है कौन सा निशां तन्हा।। दर्दो ग़म और आपकी यादें कब रहा जिस्म का मकां तन्हा।। सुरेश साहनी कानपुर
 कि जो भी खाओगे ज्यादा ही आज खाओगे। नई है भूख छोड़ शर्म लाज खाओगे।। पुराने होते तो शायद लिहाज भी करते नये मियाँ हो ना ज्यादा ही प्याज खाओगे।। ज़मीर रखते तो ऐसा कभी नहीं करते दलाल बन के स्वयं का समाज खाओगे।।
 इश्क़ के दरियाब में उलझे रहे। उम्र भर इक ख़्वाब में उलझे रहे।। फिर मग़ज़ से काम ले पाये ही कब बस दिले बेताब में उलझे रहे।। कैसे मिल पाते भला लालो-गुहर हम तेरे पायाब में उलझे रहे।। हैफ़ हम तस्कीने-दिल को छोड़कर ख़्वाहिशे-नायाब में उलझे रहे।। गर्दिशों में हम रहे हैं शौक़ से मत कहो गिरदाब में उलझे रहे।। दरियाब/नदी, मगज़/दिमाग, लालो-गुहर/हीरे मोती पायाब/उथलेपन, कम पानी,  तस्कीने-दिल/,दिल का आराम, ख़्वाहिश/इच्छा, नायाब/दुर्लभ, गर्दिश/संकट,चक्कर, गिरदाब/भँवर सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 उम्र भर दरवेश जैसा ही रहा। भीड़ में रहकर भी तन्हा ही रहा।। वक़्त बदला लोग भी बदले मग़र एक मैं जैसा था वैसा ही रहा।।साहनी