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Showing posts from June, 2025
 वेदनाओं के हलाहल सम अमिय पीते रहे हैं। उम्र भर हम मृत्यु के आगोश में जीते रहे हैं।। क्या सतत है जन्मना या मृत्यु को स्वीकार करना नाम करना जगत में या सिंधु भव का पार करना जब कभी उत्तर मिले तो उलझनों का बोझ लादे प्रश्न घट भर सब समाधानों के घट रीते रहे हैं।। आत्मा कैसे अमर है किस तरह काया क्षणिक है ब्रह्म सह अस्तित्व जिसका क्यों कहा माया क्षणिक है क्यों क्षणिक आनंद कहकर मन को भरमाया गया है क्यों सचिद आनंद से वंचित भ्रमित भीते रहे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 इश्क़ में हम सुधर गये तो फिर। इस नज़र से सँवर गये तो फिर।। सिर्फ़ इतने पे उफ़ कहा तुमने हम जो  हद से गुज़र गये तो फिर।। कैसे ऐलान कर दें उल्फ़त का कल कहीं तुम मुकर गये तो फिर।। ये न कहना कि हुस्न फ़ानी है इश्क़ वाले भी मर गये तो फिर।। कैसे माने कि दिल न तोड़ोगे टूट कर हम बिखर गये तो फिर।। फिर निभाने की कोई हद होगी तुम उसे पार कर गये तो फिर।। हम तो दुनिया से जूझ सकते हैं तुम  ज़माने से डर गये तो फिर।। आज रुसवाईयों का डर है ना कल को हम नाम कर गये तो फिर।। साहनी तुम से सच न बोलेंगे कल नज़र से उतर गये तो फिर।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 कौन लेकर   बहार   आया है। है वो  मोहूम या कि साया है।। कैसे कह दूँ मैं सिर्फ़ ख़्वाब उसे हर तसव्वुर में वो  नुमाया है।। खार कुछ  नर्म नर्म   दिखते हैं कौन    फूलों में   मुस्कुराया है।। दस्तकें बढ़ गयी हैं खुशियों की किसने दिल का पता बताया है।। बेखुदी क्यों है इन हवाओं में क्यों फ़िज़ा  पर खुमार छाया है।। आज वो भी बहक रहा होगा जिसने  सारा ज़हां  बनाया है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 परायेपन का मंज़र कब मिला है। तुम्हें अपनों से खंज़र कब मिला है।। नदी ने कब कहा तिश्ना रहो तुम तुम्हें प्यासा समुन्दर कब मिला है।। तुम्हेँ किसने कहा तुम जान दे दो मुझे जीने का मंतर कब मिला है।। तुम्हें मैं  बेतहाशा प्यार करता मगर इतना भी अवसर कब मिला है।। विरासत में मिले कब फूल मुझको तुम्हें काटों का बिस्तर कब मिला है।। अदीबों से तुम्हें नफ़रत है माना कहो मुझ सा सुखनवर कब मिला है।। रक़ाबत क्यों करे हो साहनी से मुक़ाबिल  तुमसे होकर कब मिला है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जीत कर हारना पड़ा मुझको। मन मेरा मारना पड़ा मुझको।। सच के दुश्मन कहीं ज़ियादा थे झूठ स्वीकारना पड़ा मुझको।। मुझ पे हावी था कोई डर इतना ख़ुद को  ललकारना पड़ा मुझको।। दे दिया मन छटाँक के बदले भाव से प्यार ना पड़ा मुझको।। साहनी फूट फूट कर रोया और पुचकारना पड़ा मुझको।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 उम्र इक उलझनों को दी हमने। ज़िन्दगी अनमनों को दी हमने।। अपनी इज़्ज़त उछलनी यूँ तय थी डोर ही बरहनों को दी हमने।। गालियाँ दोस्तों में चलती हैं पर दुआ दुश्मनों को दी हमने।। भूल कर अपने ख़ुश्क होठों को मय भी तर-दामनों को दी हमने।। सोचता हूँ तो नफ़्स रुकती है सांस किन धड़कनों को दी हमने।। जानकर भी ख़मोश रहने की कब सज़ा आइनों को दी हमने।। क्यों तवज्जह सराय-फानी पर साहनी मस्कनों को दी हमने।। बरहनों/ नंगों, नग्न ख़ुश्क/ सूखे तरदामन/ भरे पेट,  गुनाहगार नफ़्स/ प्राण मस्कन/ मकान सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 और हम खुद पे ध्यान कैसे दें। अपने हक़ में बयान कैसे दें।। पास अपने ज़मीन दो गज है आपको आसमान कैसे दें।। गांव की सोच जातिवादी है उनको बेहतर प्रधान कैसे दें।। रूह तन्हा पसंद है अपनी तुमको दिल का मकान कैसे दें।।  एक चंपत हमें सिखाता है ठीक से इम्तेहान कैसे दें।। वो भला है मगर पराया है उसको दल की कमान कैसे दें।। भेड़िए गिद्ध बाज तकते हैं बेटियों को उड़ान कैसे दें।। ये अमीरों के हक से मुखलिफ है सबको शिक्षा समान कैसे दें।। साहनी ख़ुद की भी नहीं सुनते उल जुलूलों पे कान कैसे दें।। सुरेश साहनी कानपुर
 दिल में शायद बसा हो डर कोई। यूं ही जाता नहीं मुकर कोई।। आप को भी यकीन आ जाता     उसकी बातों में था असर कोई।। शोर बरपा है कुछ परिंदों में गिर गया है बड़ा शजर कोई।  आशियाने तमाम उजड़े हैं जब बसा है नया शहर कोई।। सिर्फ़ उल और जलूल लिखता है साहनी भी है सुखनवर कोई।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 कैसे मानूं कि है जहान तेरा। जब कहीं भी पता मिला न तेरा।। क्या है तेरा यहाँ पे क्या न तेरा। ये ज़मी है कि आसमान तेरा।। इक ज़रा रह ज़मीन पर कुछ दिन टूट जाएगा हर गुमान तेरा।। जबकि दुनिया सराय फ़ानी है क्यों बनाते हैं सब मकान तेरा।। साहनी किस यक़ीन से लिखता जब मिला ही नहीं निशान तेरा।। सुरेश साहनी
 हम कहाँ से तुझे तबाह लगे। जबकि अगियार सरबराह लगे।। झूठ हर सू से बादशाह लगे। सब ज़हां उसकी बारगाह लगे।। जाने क्यों कर तेरी तवज्जह भी दुश्मनों की ही रस्मो-राह लगे।। शेख जायज़ है जो भी जन्नत में हमको कैसे न वो मुबाह लगे।। चश्मे कौसर को खाक़ पायेगा मयकशी जब तुझे गुनाह लगे।। बहरे-ग़म से उबारने वाला मयकदा क्यों न ख़ानक़ाह लगें।। दामने-रिन्द पे सवाल किया जा तुझे साहनी की आह लगे।। अगियार/ ग़ैर का बहुवचन,  सरबराह/प्रभावशाली, सरदार,   सू/ तरफ़   ज़हां/संसार    बारगाह/दरबार तवज़्ज़ह/ आकर्षण , ध्यान वरीयता,    रस्मो-राह /मेलजोल    शेख़/ धर्मोपदेशक  जायज़/ उचित   जन्नत/स्वर्ग,  मुबाह/ शरीयत के अनुसार चश्मे-कौसर/ शराब का झरना, स्वर्ग की नहर   मयकशी/ शराब पीना बहरे-ग़म/ दुख का सागर   मयकदा/मधुशाला    ख़ानक़ाह/ मठ दामने-रिन्द/ शराबी का दामन  सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 गर्मी पर कविता पढ़नी है। झूठी कोई कथा गढ़नी है।। सत्य कहूँ तो मैंने जाड़ा गरमी आतप नहीं सहे हैं बचपन से लेकर हम अब तक सुख सुविधा में पले बढ़े हैं यदा कदा जो चले धूप में आँचल में ले लिया छांव ने तपती धूप दहकते पत्थर नहीं पता कब सहे पाँव ने जरत रहत दिन रैन सुना है जलते हैं दिन रैन सुने हैं पर हम ने इन सब से ज्यादा एसी कूलर फैन सुने हैं बड़े लोग एसी में रहकर समर हॉट सब लिख लेते हैं नकली मड हॉउस बनवाकर पर्यावरण बचा लेते हैं कोलतार की सड़क बनाते सिर पर गिट्टी मोरंग लादे कड़ी धूप में बीस रुपये पर लदा हुआ रिक्शा धकेलते तपते खेतों में दिन दिन भर ले हल बैल हाँफते रहना जब ऐसा जीवन जी लेना तब गरमी पर कविता लिखना वरना प्यारे गरमी  क्या है ये तो पड़नी ही पड़नी है। उघरे अंत न निभने वाली झूठी कथा नहीं गढ़नी है कविता हमें  नहीं पढ़नी है।