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 तुम अगर निकले ग़ैर क्या निकले। हम तो ख़ुद हम से दूर जा निकले।। जिस्मे-फ़ानी से क्या गिला करना रूह जब अपनी बेवफा निकले।।साहनी
 ख़ुद को यूँ भगवान समझना ठीक नहीं औरों को बेजान समझना ठीक नहीं।। औरों को गुणहीन बताते फिरते हो यूँ ख़ुद को गुणवान समझना ठीक नहीं।।साहनी मुक्तक
 किसने बोला कि ख़ुद को ज़ाया कर। कुछ मगर नेकियां कमाया कर।। कुछ तो अहदे वफ़ा निभाया कर। याद आ आ के मत सताया कर।। बेवज़ह ख़ुद को मत रुलाया कर। गीत खुशियों के गुनगुनाया कर।। तेरे अपने ही तुझको भाव न दें ख़ुद को इतना भी मत पराया कर।। जो तुझे देख कर के हँसते हैं अपने ग़म उनपे मत नुमाया कर।। दुश्मनों को ही मत समझ दुश्मन दोस्तों को भी आज़माया कर।। साहनी ग़म से है रईस मग़र ख़ुद से दुनिया को मत बताया कर।।
 इस दिले-बीमार से बाहर निकल। स्वप्न के संसार से बाहर निकल।। वो कहानी है अधूरी हर तरह मर चुके  किरदार से बाहर निकल।। जिसकी खबरों पर नहीं तुझको यक़ीन अब तो उस अखबार से बाहर निकल।। आस है साहिल की जर्जर किश्तियाँ डूब कर मझधार से बाहर निकल।। जो तुम्हारे धर्म के प्रतिकूल है ऐसे हर व्यवहार से बाहर निकल ।।
 कहने को भले लोग भी दो-चार मिलेंगे। वरना सभी मतलब के लिए यार मिलेंगे।। तुम पारसा हो उन्हें
 हो लुधियाना कि दिल्ली सब बराबर धुँआ नथुनों में गोया बस गया है।।
 गर्दिशों में जूझ जा गिरदाब से बाहर निकल। शम्स है तू तीरगी के ताब से बाहर निकल।।