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Showing posts from 2013

अशोक रावत की ग़ज़लें

अदावत में तो उसकी आज भी अंतर नहीं आया, तअज्जुब है बहुत दिन से कोई पत्थर नहीं आया. उसे दो मील पैदल छोड़ने जाता था मैं बस तक, मैं उसके घर गया वो गेट तक बाहर नहीं आया. जहाँ भी देखिए बैठे हैं लाइन तोड़ने वाले, मैं लाइन में लगा था इस लिये नम्बर नहीं आया. चढ़ा हूँ देख कर हर एक सीढ़ी सावधानी से, जहाँ पर आज हूँ मैं उस जगह उड़ कर नहीं आया. ज़माने की हवाओं का असर इतना ज़ियादा है, किसी त्योहर पर बेटा पलट कर घर नहीं आया. किसी को मश्वरा क्या दूँ कि ऐसे जी कि वैसे जी, मेरी ख़ुद की समझ में जब ये जीवन भर नहीं आया.

गिरगिट जैसा रंग बदलना

  प्यार उसे आता है करना ।  मैंने तो इतना ही जाना ,॥  ,पल में माशा, पल में तोला  उसकी फितरत अल्ला -2 ,॥  लाज -शर्म से बिलकुल हट के  पल में उठना ,पल में गिरना ,॥  रूठा -रूठी ,मान -मनौव्वल  प्यार -मुहब्बत ,खेल खिलौना,॥  सच पूछो तो जादू ही है , गिरगिट जैसा रंग बदलना ,॥ रात गुनाहों की सोहबत में , और सवेरे तौबा -तौबा ॥

मेरी प्रिय ग़ज़लें

1 .वो पैकर-ए-बहार थे जिधर से वो गुज़र गये ख़िज़ाँ-नसीब रास्ते भी सज गये सँवर गये ये बात होश की नहीं ये रंग बेख़ुदी का है मैं कुछ जवाब दे गया वो कुछ सवाल कर गये मेरी नज़र का ज़ौक़ भी शरीक़-ए-हुस्न हो गया वो और भी सँवर गये वो और भी निखर गये हमें तो शौक़-ए-जुस्तजू में होश ही नहीं रहा सुना है वो तो बारहा क़रीब से गुज़र गये--नामालूम   2 .ख़ामोश रहने दो ग़मज़दों को, कुरेद कर हाले-दिल न पूछो। तुम्हारी ही सब इनायतें हैं, मगर तुम्हें कुछ खबर नहीं है। उन्हीं की चौखट सही, यह माना, रवा नहीं बेबुलाए जाना। फ़क़ीर उज़लतगुज़ीं ‘सफ़ी’ है, गदाये-दरवाज़ागर नहीं है॥  उज़लतगुज़ीं - एकांतवासी गदाये-दरवाज़ागर - दर का भिखारी तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते  जो वाबस्ता हुए,तुमसे,वो अफ़साने कहाँ जाते  तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की  तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते  चलो अच्छा काम आ गई दीवानगी अपनी  वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते बशीर बद्र--- कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न...

प्रबल प्रेम के पाले पड़ के

प्रबल प्रेम के पाले पड़ के भक्त प्रेम के पाले पड़के प्रभु को नियम बदलते देखा अपना आन टले टल जाए पर भक्त का मान न टलते देखा जिनके चरण कमल कमला के करतल से ना निकलते देखा उसको गोकुल की गलियों में कंटक पथ पर चलते देखा जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा शेष गणेश महेश सुरेश ध्यान धरें पर पार न पावें ताते बृज वोह हरी आये वृन्दावन की रास रचाएं जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा उसको गोकुल के माखन पर सौ सौ बार मचलते देखा जिनका ध्यान बिरंची शम्भू सनकादिक न सँभालते देखा उसको बाल सखा मंडल में लेकर गेंद उछालते देखा  जिनकी वक्र भृकुटी के भय से सागर सप्त उबलते देखा उसको माँ यशोदा के भय से अश्रु बिंदु दृग ढलते देखा प्रभु को नियम बदलते देखा  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

बुद्ध !तुम तो जानते थे ,

बुद्ध !तुम तो जानते थे , साधना हित वन गए थे , और फिर राहुल की मां ने, अनवरत की थी प्रतीक्षा ..... और यदि विपरीत इसके , यशोधरा वन गमन करती ' क्या उसे तुम मान देते , क्या यूँही करते प्रतीक्षा ? अप्प दीपो भव !का नारा , बुद्ध तुमने ही दिया है , स्त्रियाँ अब दीप बनकर , राह दिखलाने लगी हैं । जो बताई राह हमने , उससे कतराने लगी है || तुम बताओ साधना वश , जब उसे भी ज्ञान मिलता । लुम्बिनी में लौटने पर क्या उसे वह मान मिलता ? जो तुम्हे सबसे मिला था !!!!!!!!!!

श्रीराम स्तुति

जय राम रमा रमनं समनं जय राम राम रमनं समनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनम ॥ अवधेस सुरेस रमेस बिभो । सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥ दससीस बिनासन बीस भुजा । कृत दूरी महा महि भूरी रुजा ॥ रजनीचर बृंद पतंग रहे । सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥ महि मंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग बरं ॥ मद मोह महा ममता रजनी । तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥ मनजात किरात निपात किए । मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥ हति नाथ अनाथनि पाहि हरे । बिषया बन पावँर भूली परे ॥ बहु रोग बियोगन्हि लोग हए । भवदंघ्री निरादर के फल ए ॥ भव सिन्धु अगाध परे नर ते । पद पंकज प्रेम न जे करते ॥ अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं ॥ अवलंब भवंत कथा जिन्ह के । प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह के ॥ नहीं राग न लोभ न मान मदा । तिन्ह के सम बैभव वा बिपदा ॥ एहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥ करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ । पड़ पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥ सम मानि निरादर आदरही । सब संत सुखी बिचरंति मही ॥ मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुबीर महा रंधीर अजे ॥ तव नाम जपामि नमामि हरी । भव रोग महागद मान अरी ॥ गुण सील कृपा परमायतनं । प्रणमामि निरंतर श्रीर...

सीबीआई को स्वतंत्र करना लोकतन्त्र की हत्या करना है ।

वह दिन भारतीय लोकतंत्र का काला दिन होगा जिस दिन सीबीआई और पुलिस स्वतन्त्र अर्थात निरंकुश हो जाएगी । अभी सरकार का अंकुश है तब जाँच संस्थायें और पुलिस के अत्याचार आम है । निरंकुश होने पर उसकी भूमिका देश में इमरजेंसी जैसे हालात पैदा कर देगी । कोई भी संवैधानिक पद या संवैधानिक संस्था निरंकुश नहीं होनी चाहिए । अपने देश के संविधान में अच्छाई है कि हर संवैधानिक संस्था स्वायत्त होते हुए एक दुसरे के प्रति जबाबदेह भी है । व्यवस्थापिका ,कार्यपालिका और न्यायपलिका तीनों स्वतन्त्र रूप से कार्य करते हैं ,लेकिन जनता के प्रति सभी जबाबदेह भी हैं । जनता का मूर्त रूप उनके प्रतिनिधि होते हैं । इसलिए उनकी सर्वोच्चता को मान्यता दी गयी है । किन्तु उसमे भी सभी एक दुसरे के प्रति जबाबदेह  हैं । आज तोताराम जी ने अपनी लाचारी दर्शायी है । लेकिन यही तोताराम जब चारा घोटाले के समय डी आई जी थे तब इन्होने कई नेताओं को बचाने का काम किया था । अगर यह ईमानदारी से अपना कार्य करते और खुद को लोक कार्यकारी समझते तो आज सुप्रीम कोर्ट से फटकार ना खाते । 

चीन से युद्ध छेड़ना कितना उचित होगा?

अभी कुछ दिनों पहले ही जनरल विक्रम सिंह जी ने कहा था ,कि हमारे पास युद्ध की स्थिति में पंद्रह दिन से अधिक भिड़ने का साजो सामान नहीं है । चीन आज विश्व की पहले नंबर की आर्थिक और सामरिक शक्ति है । सबसे अधिक स्वर्ण और विदेशी मुद्रा भंडार चीन के पास है । अमेरिका ,रूस और यूरोपीय यूनियन के देश चीन के पैसों से अपनी ढहती अर्थव्यवस्था को सम्हाल रहे हैं । चीन दुनिया का सबसे बड़ा हथियार विक्रेता है और भारत सबसे बड़ा खरीदार है । हम अपनी तकनीक से एक ढंग की रिवाल्वर नहीं बना पाए हैं ,और चीन   निर्मित  ए के -47 दुनिया का नब्बे प्रतिशत आतंकवादी लेकर घूमता है । भारत के कितने नेता हैं जिनके पुत्र सेना में हैं?जबकि चीन का हर नागरिक तीन साल की सेवा सेना में सैनिक के रूप में देता है । हम दुनिया के सबसे बड़े कर्जदार देश हैं । क्या यह युद्ध हमें आर्थिक मजबूती देगा?सीमा पर जो तनाव है वह इसीलिए है क्योंकि आजतक भारत और चीन की सी मारेखा का निर्धारण नहीं हुआ है । एक आभासी सीमारेखा ही इसकी पूरक मानी गयी है । हमने भी दक्षिणी चीन सागर में हस्तक्षेप किया हुआ है ,जिसका चीन लगातार विरोध कर रहा है । बताईये ...

छोटुवा

एगो मित्र के दुकान कस्बा में बावे ,एकदम्म रोडवे से सटल ।मित्र के छोट भाई छोटू बैठेलन । एक हाली गौंवे के एगो काका लगिहन बाछी लिहले जात रहुवन । छोटूवा बोललस ,काका सकराहे केने हो ? काका कहुवन ,पाल खईले बिया भारी करे ले जात बानी । बात आईल गईल हो गईल । एक दिन काका काकी के साथै जात रहुवन । छोटुवा पूछता ,ए काका आजू नाही बताईब केने जात हईं ?काका लाठी तान के खदेर लिहलन ।

दिल्ली चलो

कुछ बनना है तो दिल्ली चलो ,'मेरे मित्र कवि श्री अमरीक सिंह दीप ने यह कविता बीसेक साल पहले लिखी थी । मैं अक्सर देखता हूँ की सारी गोष्ठियां ,सम्मेलन ,कांफ्रेंस सब दिल्ली में होते हैं । इस हिसाब से लगता है ,  सारे बुद्धिजीवी दिल्ली  में ही रहते हैं । बाकि माने चूँ चूँ का मुरब्बा । शायद आ शुतोष कुमार और अमरेन्द्र जैसे जे एन यू वाले मित्र मुझसे सहमत होंगे । 

श्रम आन्दोलन और मीडिया की भूमिका

मीडिया की सोच स्वतंत्र नहीं होती ,मालिक की बंधुवा होती है ।पूरे देश में ढाई करोड़ सरकारी और लगभग इतने ही असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी हड़ताल पर हैं ,लेकिन मीडिया केवल दो घटनाओं को हाईलाइट कर रहा है ।एक शिंदे का भगवा आतंकवाद के आगे समर्पण ,दूसरा नॉएडा की तोड़फोड़ ।लेकिन देश के जागरूक मतदाताओं का पंद्रह प्रतिशत मौजूदा सरकार की नीतियों के विरोध में है ।यदि उनके परिवार भी जोड़े जाये तो लगभग पच्चीस करोड़ ज नता सीधे सीधे सरकार के विरोध में खड़ी है ।लेकिन अख़बार लिखते हैं :अरबों का नुकसान ,पब्लिक परेशान ।यानि देश के करोड़ों मजदूर और उनके परिजन पब्लिक नहीं है ।पूरे देश में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहे हैं ,यह मीडिया को नज़र नहीं आता लेकिन एक नोएडा की घटना को लेकर शान से मजदूरों को गुण्डा -बदमाश लिखा जा रहा है । जो मजदूर अपने कारखाने को मंदिर समझता है वह आग क्यों लगाएगा जबकि वही उसकी रोज़ी रोटी है।फिर फैक्टरीयों को खाली करके आग लगाना और फर्जी बीमा रकम हासिल करना किसका काम है ,यह एक अनाड़ी भी बता सकता है । इस बार के आन्दोलन को राजनैतिक कहना अज्ञानता ही कहलायेगा।लेकिन किसको सफाई दें ?गडकरी को ,शरद ...
मीडिया की सोच स्वतंत्र नहीं होती ,मालिक की बंधुवा होती है ।पूरे देश में ढाई करोड़ सरकारी और लगभग इतने ही असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी हड़ताल पर हैं ,लेकिन मीडिया केवल दो घटनाओं को हाईलाइट कर रहा है ।एक शिंदे का भगवा आतंकवाद के आगे समर्पण ,दूसरा नॉएडा की तोड़फोड़ ।लेकिन देश के जागरूक मतदाताओं का पंद्रह प्रतिशत मौजूदा सरकार की नीतियों के विरोध में है ।यदि उनके परिवार भी जोड़े जाये तो लगभग पच्चीस करोड़ ज नता सीधे सीधे सरकार के विरोध में खड़ी है ।लेकिन अख़बार लिखते हैं :अरबों का नुकसान ,पब्लिक परेशान ।यानि देश के करोड़ों मजदूर और उनके परिजन पब्लिक नहीं है ।पूरे देश में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहे हैं ,यह मीडिया को नज़र नहीं आता लेकिन एक नोएडा की घटना को लेकर शान से मजदूरों को गुण्डा -बदमाश लिखा जा रहा है । जो मजदूर अपने कारखाने को मंदिर समझता है वह आग क्यों लगाएगा जबकि वही उसकी रोज़ी रोटी है।फिर फैक्टरीयों को खाली करके आग लगाना और फर्जी बीमा रकम हासिल करना किसका काम है ,यह एक अनाड़ी भी बता सकता है । इस बार के आन्दोलन को राजनैतिक कहना अज्ञानता ही कहलायेगा।लेकिन किसको सफाई दें ?गडकरी को ,शरद ...

रेप और बलात्कार

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रेप? ये तो दिल्ली में होता हैं  गाँव-गलियारों में  हँसी -मजाक होती है ,छेड़छाड़ नहीं । अरहर और गन्ने के खेतों में  बलात्कार नहीं होते, परंपरा- निभाई होती है । वैसे भी बड़े आदमी से  बुरा नहीं माना जाता । लीला को पाप तो ना बोल , फिर अपनी गैय्या सम्हाल के क्यों नहीं रखते ? गंवार कही के !!! अरे छेड़छाड़ तो दिल्ली में होती है, वह भी मेट्रो में या बस में । और सुन ! बेटी से रोटी भिजवा देना थाने में दरोगा जी कब के भूखे हैं , बेचारे!!