मेरी प्रिय ग़ज़लें
1 .वो पैकर-ए-बहार थे जिधर से वो गुज़र गये
ख़िज़ाँ-नसीब रास्ते भी सज गये सँवर गये
ये बात होश की नहीं ये रंग बेख़ुदी का है
मैं कुछ जवाब दे गया वो कुछ सवाल कर गये
मेरी नज़र का ज़ौक़ भी शरीक़-ए-हुस्न हो गया
वो और भी सँवर गये वो और भी निखर गये
हमें तो शौक़-ए-जुस्तजू में होश ही नहीं रहा
सुना है वो तो बारहा क़रीब से गुज़र गये--नामालूम
2 .ख़ामोश रहने दो ग़मज़दों को, कुरेद कर हाले-दिल न पूछो।
तुम्हारी ही सब इनायतें हैं, मगर तुम्हें कुछ खबर नहीं है।
उन्हीं की चौखट सही, यह माना, रवा नहीं बेबुलाए जाना।
फ़क़ीर उज़लतगुज़ीं ‘सफ़ी’ है, गदाये-दरवाज़ागर नहीं है॥
उज़लतगुज़ीं - एकांतवासी
गदाये-दरवाज़ागर - दर का भिखारी
तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए,तुमसे,वो अफ़साने कहाँ जाते
तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
चलो अच्छा काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते
बशीर बद्र---
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो
कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा
फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा
इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा
ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा--बशीर बद्र-
परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता--बशीर बद्र-
कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
मैं भी शायद बुरा नहीं होता
वो अगर बेवफ़ा नहीं होता
बेवफ़ा बेवफ़ा नहीं होता
ख़त्म ये फ़ासला नहीं होता
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता
रात का इंतज़ार कौन करे
आज-कल दिन में क्या नहीं होता
गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता-- बशीर बद्र
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं
देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं
इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं-- नामालूम
एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे ।
साक़िया जाते हैं, महफ़िल तेरी आबाद रहे ।।
बाग़बाँ दिल से वतन को यह दुआ देता है,
मैं रहूँ या न रहूँ यह चमन आबाद रहे ।
मुझको मिल जाय चहकने के लिए शाख़ मेरी,
कौन कहता है कि गुलशन में न सय्याद रहे ।
बाग़ में लेके जनम हमने असीरी झेली,
हमसे अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे ।-- नामालूम
ख़िज़ाँ-नसीब रास्ते भी सज गये सँवर गये
ये बात होश की नहीं ये रंग बेख़ुदी का है
मैं कुछ जवाब दे गया वो कुछ सवाल कर गये
मेरी नज़र का ज़ौक़ भी शरीक़-ए-हुस्न हो गया
वो और भी सँवर गये वो और भी निखर गये
हमें तो शौक़-ए-जुस्तजू में होश ही नहीं रहा
सुना है वो तो बारहा क़रीब से गुज़र गये--नामालूम
2 .ख़ामोश रहने दो ग़मज़दों को, कुरेद कर हाले-दिल न पूछो।
तुम्हारी ही सब इनायतें हैं, मगर तुम्हें कुछ खबर नहीं है।
उन्हीं की चौखट सही, यह माना, रवा नहीं बेबुलाए जाना।
फ़क़ीर उज़लतगुज़ीं ‘सफ़ी’ है, गदाये-दरवाज़ागर नहीं है॥
उज़लतगुज़ीं - एकांतवासी
गदाये-दरवाज़ागर - दर का भिखारी
तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए,तुमसे,वो अफ़साने कहाँ जाते
तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
चलो अच्छा काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते
बशीर बद्र---
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो
कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा
फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा
इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा
ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा--बशीर बद्र-
परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता--बशीर बद्र-
कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
मैं भी शायद बुरा नहीं होता
वो अगर बेवफ़ा नहीं होता
बेवफ़ा बेवफ़ा नहीं होता
ख़त्म ये फ़ासला नहीं होता
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता
रात का इंतज़ार कौन करे
आज-कल दिन में क्या नहीं होता
गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता-- बशीर बद्र
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं
देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं
इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं-- नामालूम
एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे ।
साक़िया जाते हैं, महफ़िल तेरी आबाद रहे ।।
बाग़बाँ दिल से वतन को यह दुआ देता है,
मैं रहूँ या न रहूँ यह चमन आबाद रहे ।
मुझको मिल जाय चहकने के लिए शाख़ मेरी,
कौन कहता है कि गुलशन में न सय्याद रहे ।
बाग़ में लेके जनम हमने असीरी झेली,
हमसे अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे ।-- नामालूम
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