मीडिया की सोच स्वतंत्र नहीं होती ,मालिक की बंधुवा होती है ।पूरे देश में ढाई करोड़ सरकारी और लगभग इतने ही असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी हड़ताल पर हैं ,लेकिन मीडिया केवल दो घटनाओं को हाईलाइट कर रहा है ।एक शिंदे का भगवा आतंकवाद के आगे समर्पण ,दूसरा नॉएडा की तोड़फोड़ ।लेकिन देश के जागरूक मतदाताओं का पंद्रह प्रतिशत मौजूदा सरकार की नीतियों के विरोध में है ।यदि उनके परिवार भी जोड़े जाये तो लगभग पच्चीस करोड़ जनता सीधे सीधे सरकार के विरोध में खड़ी है ।लेकिन अख़बार लिखते हैं :अरबों का नुकसान ,पब्लिक परेशान ।यानि देश के करोड़ों मजदूर और उनके परिजन पब्लिक नहीं है ।पूरे देश में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहे हैं ,यह मीडिया को नज़र नहीं आता लेकिन एक नोएडा की घटना को लेकर शान से मजदूरों को गुण्डा -बदमाश लिखा जा रहा है ।जो मजदूर अपने कारखाने को मंदिर समझता है वह आग क्यों लगाएगा जबकि वही उसकी रोज़ी रोटी है।फिर फैक्टरीयों को खाली करके आग लगाना और फर्जी बीमा रकम हासिल करना किसका काम है ,यह एक अनाड़ी भी बता सकता है । इस बार के आन्दोलन को राजनैतिक कहना अज्ञानता ही कहलायेगा।लेकिन किसको सफाई दें ?गडकरी को ,शरद पवार को,चिदंबरम को ,या मोंटेक सिंह को ।सभी एक ही थैली के चट्टे -बट्टे हैं।अख़बार और मीडिया एक दिन की हड़ताल से 20,000 करोड़ का घाटा बता रहे हैं यानि 400करोड़ डालर प्रतिदिन ।देश की जीडीपी का 20%यदि एक दिन के हड़ताल से प्रभावित होता है तब पांच दिन में देश को बैठ जाना चाहिए ।यहाँ तक की वह (मीडिया )ट्रेडिंग -अनट्रेडिंग ,असंकलित टैक्सेज और पेन्डिंग ट्रांजिक्सन को भी इस घाटे ,में जोड़ कर दिखा रहा है ।देश के सालाना बजट का 1.4%घाटा एक दिन की हड़ताल से दिखाया जा रहा है ।यानि पचहत्तर दिन में यह देश के सालाना बजट की बराबरी कर सकता है ।या प्रतिदिन की जीडीपी दर ऐसी हो तो वास्तविक विकास दर में हम चीन और अमेरिका को पछाड़ रहे हैं । अब सरकार को दो ही कार्य करना चाहिए ।इतने लाभ में रहने वाले उद्योगों से समुचित कर वसूल करे और अपनी आय छुपाने के लिए उन्हें दण्डित करे ।या उन अख़बारों और मीडिया से जुड़ें लोगों को दण्डित करे जो गलत समाचार प्रस्तुत कर देश को गुमराह कर रहे हैं ।नोएडा की हिंसा में मजदूरों का नाम आना एक बड़ी साजिश हो सकती है ।क्योंकि मजदूरों के बिना वज़ह हिसक होने की बात गले से नीचे नहीं उतर रही है ।मजदूर आंदोलनों को बदनाम करने या उनका दमन करने के कुत्सित प्रयास पहले भी होते रहे हैं ।इसके लिए कुछ मुठ्ठी भर गुंडों-दलालों की आवश्यकता होती है ।ये वो अराज़क तत्व होते हैं जो थोड़े से पैसे,और स्मैक या दारू के एवज में अपना इमान बेचने को तैयार रहते है ।श्रम संगठनों और श्रम कार्यकर्ताओं को सजग रहने की ज़रूरत है ।
भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील
अमवा के बारी में बोले रे कोयिलिया ,आ बनवा में नाचेला मोर| पापी पपिहरा रे पियवा पुकारे,पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर||........... छलकल .... सुगवा के ठोरवा के सुगनी निहारे,सुगवा सुगिनिया के ठोर, बिरही चकोरवा चंदनिया निहारे, चनवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, . छलकल .... नाचेला जे मोरवा ता मोरनी निहारे जोड़ीके सनेहिया के डोर, गरजे बदरवा ता लरजेला मनवा भीजी जाला अंखिया के कोर निरमोहिया रे, . छलकल .... घरवा में खोजलीं,दलनवा में खोजलीं ,खोजलीं सिवनवा के ओर , खेत-खरिहनवा रे कुल्ही खोज भयिलीं, पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल ....
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