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Showing posts from 2010

शरद, शक्कर और सट्टा

देश में चीनी के दाम एकाएक पचास रुपये तक जा पहुँचे। चीनी के बारे में कृषिमन्त्री के बयानो ने जताया कि चीनी की अगले तीन साल तक कमी बनी रहेगी।देश की सौ करोड़ जनता प्रति माह एक किलो के औसत से चीनी का उपभोग करती है। इस हिसाब से यदि तीस रु. तक दाम बढे़ तो हर महीने लगभग तीन हज़ार करोड़ रु. का हेर-फ़ेर हुआ है। यानि एक वर्ष के बफ़र स्टाक पर खेला गया खेल लगभग तीस हज़ार करोड़ का घोटाला हो सकता है।आज मन्त्री जी किसानों के दर्द को समझने की बात कह रहे हैं । मगर ये वो किसान हैं कारपोरेट हैं। कांग्रेस की मजबूरी हो सकती है,मगर मुलायम और अन्य विपक्ष क्यों मौन रहा ये समझ में नही आता।माना कि शरद पवार अर्थशास्त्री नहीं हैं किन्तु उस खेल के मसीहा हैं जो सट्टे बाजी का पर्याय बन चुकी है।

शरद पवार को जबाब देना होगा

नयी सरकार गठन के पूर्व ही आम जनता के मन में इस बात को लेकर संशय बरक़रार था कि कहीं शरद पवार पुनः कृषि मंत्री न बन जाय और महँगाई पुनः आसमान छूने लगे लेकिन आशंकायें सही साबित हुयीं और खाद्य पदार्थो कीbetahaasha मूल्य -वृद्धि ने आम जन को झकझोर कर रख दिया है गेहूं व दालें(arhar) ,khady तेल आदि के दाम गरीब की थाली पर साहूकार बन कर बैठ गए चीनी के दाम ,मराठा सूगर -लाबी और शरद पवार के सम्बन्ध जग जाहिर है क्रिकेट का सट्टा कृषि उत्पादों पर हावी हो गया प्रति व्यक्ति एक किलो चीनी के औसत से तीस रुपये की मूल्य वृद्धि से देश की गरीब जनता पर हर माह तीन हज़ार करोड़ का बोझ बढ़ा इस तरह छः माह में ही अट्ठारह करोड़ रुपये का घोटाला या हेर-फेर हुआ है जो की सरकार और विपक्ष के पूर्णतः संज्ञान में है पवार साहब भले ही सफाई दे ,मगर जनता सब समझ रही है देश के जिन किसानों का समझ ने की बात पवार साहब करते है वे गरीब नहीं कारपोरेट किसान है फिर जब देश में कई अर्थ व्यवस्थाये एक साथ चल रही हो तब उनका तर्क और भी गले नहीं उतरता माननीय कृषि मंत्री का सौभाग्य है की देश के मंत्री का चुनाव लोक सभा क्षेत्रो तक सीमित है लेकिन एक स...

एक कबीर का जाना :कृष्णानंद चौबे

बेकार का ये, शोर शराबा है शहर में समन्दर के भी जाने का पता तक नहीं चलता हम कई बार उन बातों पर बहुत ज्यादा चर्चा करते हैं,जो अर्थहीन सी होती हैं। हम उन नेताओं की कही बातों पर प्रतिक्रियाशील हो उठते है जो सही मायनों में सन्दर्भहीन हैं।भाषा,क्षेत्र, जाति,सम्प्रदाय की राजनीति करने वालों के जीने मरने पर सक्रिय हो जाना एक फ़ैशन हो गया है। ऐसे में कृष्णानन्द जी का जाना क्या चर्चा का विषय बन सकता था। लेकिन साहित्य जगत में एक खालीपन तो शिद्दत से महसूस किया गया। पत्रकार भाईयों ने अपने दायित्व का निर्वहन किया।किसी शायर ने कहा है-- गये ज़माने के सिक्के लिये मैं बैठा हूँ, किसी फ़कीर का आना इधर नहीं होता॥ कृष्णानन्द जी सम्भवतः इसी स्थिति में आ चुके थे। लेकिन उनकी रचनायें , उनके शेर आज भी प्रासन्गिक हैं। सच पूछिये तो चौबे जी आधुनिक कबीर थे,मन्सूर थे। उनकी एक ही पंक्ति उनके जीवन-दर्शन का बोध कराने के लिये पर्याप्त है-- मंदिरों में आप मनचाहे भजन गाया करें। मयकदा है ये, यहाँ तहजीब से आया करें॥

विपथगा

लायी हयात आये कज़ा ले चली चले अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले प्याज का एक छिलका और उतर गया कम से कम मेरे जेहन में जन्म दिन के बारे में यही धारणा है अब मनाने वाले मानते रहें ,पर एक बात तय है की ऐसे लोग चिन्तक नहीं होते भई!चिन्तक इन बातों पर उछल कूद नहीं मचाते , जैसा कबीर ने कहा - सुखिया सब संसार है ,खाए और सोये दुखिया दास कबीरहै ,जागे और रोये फिर इसमे सेलिब्रेट करने की क्या बात है पैदा हुए, बड़े हुए ,खाया पीया मर गए इसमे सेलिब्रेसन जैसा क्या है ?अरे सेलिब्रेट करना है तो पहले सेलिब्रेटी बनो mअगर ये ज़हमत कौन उठाये ,हमें अच्छा बनने से परहेज है कोल्हू के बैल जैसा जीवन जीने की आदत है ,इस कड़ी में दिन, महीना ,साल सब क्रमशः आते जायेंगे कल चालीस के थे ,आज इकतालीस के हो गए कब मुट्ठी से रेत सरक गयी ,पता ही नहीं चला आज ड्यूटी पर पहली बार शुक्ला जी ने जन्म दिन पर बधाई दी नहीं भी देते तो मै क्या कर लेता पहले bhii लोगों की टिप्पणियां सुन चुका हूँ -"ये नया नाटक है ,जन्म दिन की बधाई' एक कहता हैदूसरा कहता है ,'इससे क्या मिलेगा' तीसरा कहता है ,"यार! कम से कम लोगों का सुख-दुःख तो प...

पुस्तक- चर्चा :सागर के इस पार से उस पार तक

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा-भला --हरिवन्श राय बच्चन की इन पन्क्तियों में जीवन भर का चिन्तन वैसे ही समाहित है जैसे सस्पेनसन जेल तकनीक से दिन भर का भोजन माइक्रो-न्युट्रियेन्ट्स के रूप में एक पाउच या सैशे मे भर दिया जाता है। कृष्णबिहारी और रांगेयराघव में वैचारिक मतभेद प्रबल है।रागेय का कहना है"लिखने से बचो,;। बौड़म थे सो कह दिया ।अब कृष्न बिहारी जी को कौन समझाये लिख मारा। एक बडी़ बीमारी से सारा देश ग्रसित है "यहाँ अखबार भी मांग कर पढ़ा जाता है। ऊपर से गाँधी बाबा का देश है;आधे मानेंगे आधे नहींमानेंगे। बीच वालों की गिनती नहीं की जाती। वो तो भला हो रामजी का,बोल दिया’कलियुग में।कांग्रेस तुमको भी राइट देगी।अब विरोधी ज्यादा है,लिख्ने वालों की कमी नहीं।इतना लिख दिया कि लोगों ने पढ़ने से तौबा करना शुरू कर दिया। बचाखुचा काम क्रिकेट और टीवी ने कर दिया। कुछ हिम्मती बचे हैं लेकिन उपन्यास और कहानियों तक,वह भी कहानी हो तो सत्यकथा टाइप। और आत्मकथा तो दूर आत्मकथ्य पढने से लोग डरने लगे हैं।इसका मूल कारण मौलिकता...
कैसे तन्हा करे सफ़र कोई अब नहीं सूझती डगर कोई तुमसे किस बात का गिला आखिर साथ देता है उम्र भर कोई हम भी हँस कर जबाब ही देते प्यार से बोलता अगर कोई गाँव के गाँव खा गई सड़कें जब बसा है नया शहर कोई आज तक उसके मुन्तजि़र है लोग उसकी बातों में था असर कोई

कविता -चर्चा

कई बार जाने - अनजाने हम ऐसी गलतियां करते है | अपना लिखा ही दर्शाना चाहतें है | लेकिन दूसरों के लिए और

देश द्रोह के मानक तय होने चाहिए

----------------------------------- इस समय देश में राजनैतिक अराजकता छायी हुयी है. ऐसा लगता है कि कानून और जनता सब नेताओं के ठेन्गे पर है.क्षेत्र,भाषा और मज़हब के नाम पर खुले- आम वैमनस्य फ़ैलाया जा रहा है. सरकारों मे या तो साहस की कमी है या इच्छाशक्ति का अभाव है.क्योकि ऐसी हरकतों पर कार्यवाही के नाम पर केवल खाना- पूरी की जारही है. समाज में नफ़रत ,हिंसा की राज- नीति करने वालों पर ठोस कार्यवाही करने की बजाय छोटे मोहरों को गिरफ़्तार करना देश के कानून का मज़ाक उड़ाना ही तो है.अब समय आ गया है कि देश द्रोह क्या है इसे पुनः परिभाषित किया जाना चाहिये वरना बहुत देर तो हो ही चुकी है.इन के उपद्रवों को ही नियन्त्रित करने में देश की पुलिस और सुरक्षा एजेन्सियां व्यस्त है. ऐसा प्रतीत होता है कि शिवसेना और मनसे की आइ एस आइ से कुछ साँठ्गाँठ है.

देश द्रोह के मानक तय होने चाहिए

देश द्रोह के मानक तय होने चाहिये ----------------------------------- इस समय देश में राजनैतिक अराजकता छायी हुयी है. ऐसा लगता है कि कानून और जनता सब नेताओं के ठेन्गे पर है.क्षेत्र,भाषा और मज़हब के नाम पर खुले- आम वैमनस्य फ़ैलाया जा रहा है. सरकारों मे य तो साहस की कमी है या इच्छाशक्ति का अभाव है.क्योकि ऐसी हरकतों पर कार्यवाही के नाम पर केवल खाना- पूरी की जारही है. समाज में नफ़रत ,हिंसा की राज- नीति करने वालों पर ठोस कार्यवाही करने की बजाय छोटे मोहरों को गिरफ़्तार करना देश के कानून का मज़ाक उड़ाना ही तो है.अब समय आ गया है कि देश द्रोह क्या है इसे पुनः परिभाषित किया जाना चाहिये वरना बहुत देर तो हो ही चुकी है.इन के उपद्रवों को ही नियन्त्रित करने में देश की पुलिस और सुरक्षा एजेन्सियां व्यस्त है. ऐसा प्रतीत होता है कि शिवसेना और मनसे आइ एस आइ से कुछ साँठ्गाँठ है.

जिजीविषा

देर रात गए सोने और सुबह जागने के मध्य सरक जाते हैं स्वप्न जैसे एक मुट्ठी रेत घरौदा बनाने के दरमियान लहरे जरूर आती हैं गिर जाती हैं रेत की इमारत रह जातें हैं रेत सने हाथ बनाने को फिर नया घरौंदा !!!
पुणे में विस्फोट होना दुखद है किन्तु हैरत पूर्ण नहीं ,क्योकि सारी पुलिस और सुरक्षा एजेन्सीया तो शिव सेना और मनसे जैसी देश को बांटने वाले दलों क उपद्रवों से जूझ रही हैं ऐसे में आतंकी संगठन फायदा उठा - ले तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए आखिर शिव सेना और आई एस आई का उद्देश्य तो एक ही है