विपथगा

लायी हयात आये कज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले
प्याज का एक छिलका और उतर गया कम से कम मेरे जेहन में जन्म दिन के बारे में यही धारणा है
अब मनाने वाले मानते रहें ,पर एक बात तय है की ऐसे लोग चिन्तक नहीं होते भई!चिन्तक इन बातों
पर उछल कूद नहीं मचाते , जैसा कबीर ने कहा -
सुखिया सब संसार है ,खाए और सोये
दुखिया दास कबीरहै ,जागे और रोये
फिर इसमे सेलिब्रेट करने की क्या बात है पैदा हुए, बड़े हुए ,खाया पीया मर गए इसमे सेलिब्रेसन जैसा क्या है ?अरे सेलिब्रेट करना है तो पहले सेलिब्रेटी बनो mअगर ये ज़हमत कौन उठाये ,हमें अच्छा बनने से परहेज है कोल्हू के बैल जैसा जीवन जीने की आदत है ,इस कड़ी में दिन, महीना ,साल सब क्रमशः आते जायेंगे कल चालीस के थे ,आज इकतालीस के हो गए कब मुट्ठी से रेत सरक गयी ,पता ही नहीं चला आज ड्यूटी पर पहली बार शुक्ला जी ने जन्म दिन पर बधाई दी नहीं भी देते तो मै क्या कर लेता पहले
bhii लोगों की टिप्पणियां सुन चुका हूँ
-"ये नया नाटक है ,जन्म दिन की बधाई' एक कहता हैदूसरा कहता है ,'इससे क्या मिलेगा'
तीसरा कहता है ,"यार! कम से कम लोगों का सुख-दुःख तो पूछते हैं वरना इतने अफसर आये गए ,कौन किसका
हाल -चाल लेने आया ?तरह तरह के मूंह तरह तरह की बात एक साथी बोलता है ,'सूखी बधाई से क्या होगा ,कुछ
खर्च-वर्च हो जाय ,चाहे शुक्लाजी करे चाहे साहनी मैं खुल कर हँस नही पाता । मैं क्या आजकल हर आदमी बनावटी हँसी के साथ है।
लेकिन मैं ’सम्पत्तौ च विपत्तौमहतामेकरूपता" के भाव में रहता हूं।
शुक्ला जी ने काफ़ी बातें की।निश्चित तौर पर ग्यानी पुरुष है।सब प्रकार
से श्रेष्ठ और मैं--"नाम जाति कुल सब विधि हीना"
पर यह भी सत्य है ,पच्चीस वर्ष के कैरियर में पहली बार किसी अधिकारी ने स्वतः
जन्म दिन पर बधाइ दी ।मैं भावाभिभूत हूँ।इस के मूल्य को मैं समझ रहा हूँ। आप
की सम्पन्नता की एक सीमा है,पैसे से कितने लोग अपने बनाये जा सकते हैं?यह सामाजिक
जीवन का कटु सत्य है कि किसी भी धनसम्पन्न के करीबी या हितैषी सौ से दो सौ के बीच
ही होंगे। भले भीड़ दस हजार की जुटती हो।मगर भगवान बुद्ध ने कितने लोगों कोदौलत बाँटी
,कितनों को ख्ज़ाना दे दिया ।"पियतो जायते शोकम" बस इतना सा विचार ,मात्र तीन शब्द
उन्होंने समाज को दिये और आज उनके करोड़ो अनुयायी दुनिया में फ़ैले हुये हैं।लगभग यही
स्थिति सभी महापुरुषों की रही है।सत्ताविहीन सुकरात ,सूली पर चढा़ इसा और मस्त मन्सूर
सब भाव सम्पन्न ही तो हैं।यह भाव यह विचारों की सम्पदा ही सच्ची सम्पदा है।मध्य प्रदेश
के एक पुलिस अधिकारी ने नीरस कही जाने वाली पुलिस से वृक्षारोपण करादाला।सृजनत्मकता
ही संवेदना जगाती है।संवेदनशील व्यक्ति ही सृजन करता है।मैं शुक्ला जी को धन्यवाद नहीं
दून्गा।क्योंकि उनका कर्तित्व धन्यवाद से परे है।यह जो सम्वेदना है,यह जो सरोकार है,
आमजन से जुड़ने की भावना है, आज इसकी ही आवश्यकता है।वरना--
किसको फ़ुर्सत है कि चेहरों की कहानी समझे,
लोग बस दूर से आइना दिखा देते हैं ॥
एक बात और कहना चाहुन्गा कि-
कुछ लोग थे कि वक्त के साँचे में ढल गये।
कुछ लोग थे कि वक्त का साँचा बदल गये॥
साँचा बदलने वालों का टोटा है कमी है।साँचे मे ढलने वाले बहुत हैं।शुक्ला जी के प्रयास को शत
-शत नमन सबसे इस आग्रह के साथ
- बचा के रख अपने पास, अगर है बाकी
आज एहसास की दौलत किसे मयस्सर है॥

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