पुस्तक- चर्चा :सागर के इस पार से उस पार तक
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ
कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा-भला
--हरिवन्श राय बच्चन की इन पन्क्तियों में जीवन भर का चिन्तन वैसे ही समाहित है जैसे सस्पेनसन जेल
तकनीक से दिन भर का भोजन माइक्रो-न्युट्रियेन्ट्स के रूप में एक पाउच या सैशे मे भर दिया जाता है।
कृष्णबिहारी और रांगेयराघव में वैचारिक मतभेद प्रबल है।रागेय का कहना है"लिखने से बचो,;। बौड़म थे सो कह दिया ।अब कृष्न बिहारी जी को कौन समझाये लिख मारा। एक बडी़ बीमारी से सारा देश ग्रसित है "यहाँ अखबार भी मांग कर पढ़ा जाता है। ऊपर से गाँधी बाबा का देश है;आधे मानेंगे आधे नहींमानेंगे। बीच वालों की गिनती नहीं की जाती। वो तो भला हो रामजी का,बोल दिया’कलियुग में।कांग्रेस तुमको भी राइट देगी।अब विरोधी ज्यादा है,लिख्ने वालों की कमी नहीं।इतना लिख दिया कि लोगों ने पढ़ने से तौबा करना शुरू कर दिया। बचाखुचा काम क्रिकेट और टीवी ने
कर दिया। कुछ हिम्मती बचे हैं लेकिन उपन्यास और कहानियों तक,वह भी कहानी हो तो सत्यकथा टाइप। और आत्मकथा तो दूर आत्मकथ्य
पढने से लोग डरने लगे हैं।इसका मूल कारण मौलिकता का अभाव है।कहीं कुछ नयापन नहीं है। वैसे नयापन भी दो तरह का हो गया है।बिकाऊ
नयापन लाना है तो अपनी रचना में रिश्तों की मर्यादा लांघो, कुछ आदिम से हो जाओ;अरुन्धती जैसा;बुकर तैयार है
खैर’ "सागर के इस पार से उस पार तक; नहीं पढ़्ने तक उहापोह की स्थिति बरकरार रही।कुछ मेरी सोच भी गलत थी।
शायद मुझमे ही यह आदत है या यह कनपुरिया बीमारी है कि किसी का प्रोफेशन पता चलते ही मन में गांठ बन जाती है।बिना पूर्वाग्रह के सोच ही नही पाते। और लेखक हैं सब गांधी,सब नेहरू ,सब बच्चन।अरे! हिन्दी मे आटोबायोग्राफ़ी शब्द ही नहीं है। कमिट्मेन्ट था पढ़ना है ,सो चालू
किया । उधर टीवी पर सीरियल और न्युज इधर बिटिया की दुलार-मनुहार,दोनो के बीच किताब में ध्यान लगाना दुरूह कार्य था।यह गुण तो नेपोलियन में था। लेकिन हमने भी किताब नहीं छोड़ी।पाँच पन्ना फ़िर दस पन्ना।यद्यपि व्यवधान जारी रहा। विवाहित सबसे निरीह प्राणी होता है।उसे साहित्य प्रेमी
नहीं होना चाहिये।एक कवि को आत्महत्या करनी थी, किसी हितैषी टाइप शत्रु ने सुझाव दिया,शादी कर लो। शादी के बाद कला संगीत,साहित्य सब खत्म हो जाता है।
कृष्णबिहारी की मोहिनी चल चुकी थी। घर में साहित्य में लीनहोने की स्थिति व महारास के समय गोपियों की दशा में ग़जब का साम्य है,निष्काम प्रेम का आनन्द भी और पति की संग्यानता का भय भी,यही माया है ,माया जो आनन्द से दूर कर देती है।ब्रम्हलीन होना है तो परिवेश पूर्णतः बाधा
रहित व अनुकूल होना आवश्यक है।जैसे तैसे पढ़ डाला।दिन भर सोचना पडा़ कि कहानी है या उपन्यास! आत्मकथा तो इतनी रोचक नहीं होती।एक बार पुनः पढा। हाँ है तो आत्मकथा,लेकिन कुछ व्यक्त करने से पहले एक बार आश्वस्त हो लें क्योंकि मन से गाँठ निकालनी है कि अरे! ये गुलाब के भैया ही तो हैं।आखिर:-
असर आयेगा आहिस्ता-आहिस्ता,
मुहब्बत है कोइ जादू नहीं है॥
कुछ देर कहीं पर बैठ
कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या बुरा-भला
--हरिवन्श राय बच्चन की इन पन्क्तियों में जीवन भर का चिन्तन वैसे ही समाहित है जैसे सस्पेनसन जेल
तकनीक से दिन भर का भोजन माइक्रो-न्युट्रियेन्ट्स के रूप में एक पाउच या सैशे मे भर दिया जाता है।
कृष्णबिहारी और रांगेयराघव में वैचारिक मतभेद प्रबल है।रागेय का कहना है"लिखने से बचो,;। बौड़म थे सो कह दिया ।अब कृष्न बिहारी जी को कौन समझाये लिख मारा। एक बडी़ बीमारी से सारा देश ग्रसित है "यहाँ अखबार भी मांग कर पढ़ा जाता है। ऊपर से गाँधी बाबा का देश है;आधे मानेंगे आधे नहींमानेंगे। बीच वालों की गिनती नहीं की जाती। वो तो भला हो रामजी का,बोल दिया’कलियुग में।कांग्रेस तुमको भी राइट देगी।अब विरोधी ज्यादा है,लिख्ने वालों की कमी नहीं।इतना लिख दिया कि लोगों ने पढ़ने से तौबा करना शुरू कर दिया। बचाखुचा काम क्रिकेट और टीवी ने
कर दिया। कुछ हिम्मती बचे हैं लेकिन उपन्यास और कहानियों तक,वह भी कहानी हो तो सत्यकथा टाइप। और आत्मकथा तो दूर आत्मकथ्य
पढने से लोग डरने लगे हैं।इसका मूल कारण मौलिकता का अभाव है।कहीं कुछ नयापन नहीं है। वैसे नयापन भी दो तरह का हो गया है।बिकाऊ
नयापन लाना है तो अपनी रचना में रिश्तों की मर्यादा लांघो, कुछ आदिम से हो जाओ;अरुन्धती जैसा;बुकर तैयार है
खैर’ "सागर के इस पार से उस पार तक; नहीं पढ़्ने तक उहापोह की स्थिति बरकरार रही।कुछ मेरी सोच भी गलत थी।
शायद मुझमे ही यह आदत है या यह कनपुरिया बीमारी है कि किसी का प्रोफेशन पता चलते ही मन में गांठ बन जाती है।बिना पूर्वाग्रह के सोच ही नही पाते। और लेखक हैं सब गांधी,सब नेहरू ,सब बच्चन।अरे! हिन्दी मे आटोबायोग्राफ़ी शब्द ही नहीं है। कमिट्मेन्ट था पढ़ना है ,सो चालू
किया । उधर टीवी पर सीरियल और न्युज इधर बिटिया की दुलार-मनुहार,दोनो के बीच किताब में ध्यान लगाना दुरूह कार्य था।यह गुण तो नेपोलियन में था। लेकिन हमने भी किताब नहीं छोड़ी।पाँच पन्ना फ़िर दस पन्ना।यद्यपि व्यवधान जारी रहा। विवाहित सबसे निरीह प्राणी होता है।उसे साहित्य प्रेमी
नहीं होना चाहिये।एक कवि को आत्महत्या करनी थी, किसी हितैषी टाइप शत्रु ने सुझाव दिया,शादी कर लो। शादी के बाद कला संगीत,साहित्य सब खत्म हो जाता है।
कृष्णबिहारी की मोहिनी चल चुकी थी। घर में साहित्य में लीनहोने की स्थिति व महारास के समय गोपियों की दशा में ग़जब का साम्य है,निष्काम प्रेम का आनन्द भी और पति की संग्यानता का भय भी,यही माया है ,माया जो आनन्द से दूर कर देती है।ब्रम्हलीन होना है तो परिवेश पूर्णतः बाधा
रहित व अनुकूल होना आवश्यक है।जैसे तैसे पढ़ डाला।दिन भर सोचना पडा़ कि कहानी है या उपन्यास! आत्मकथा तो इतनी रोचक नहीं होती।एक बार पुनः पढा। हाँ है तो आत्मकथा,लेकिन कुछ व्यक्त करने से पहले एक बार आश्वस्त हो लें क्योंकि मन से गाँठ निकालनी है कि अरे! ये गुलाब के भैया ही तो हैं।आखिर:-
असर आयेगा आहिस्ता-आहिस्ता,
मुहब्बत है कोइ जादू नहीं है॥
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