एक कबीर का जाना :कृष्णानंद चौबे

बेकार का ये, शोर शराबा है शहर में
समन्दर के भी जाने का पता तक नहीं चलता
हम कई बार उन बातों पर बहुत ज्यादा चर्चा करते हैं,जो अर्थहीन
सी होती हैं। हम उन नेताओं की कही बातों पर प्रतिक्रियाशील हो
उठते है जो सही मायनों में सन्दर्भहीन हैं।भाषा,क्षेत्र, जाति,सम्प्रदाय
की राजनीति करने वालों के जीने मरने पर सक्रिय हो जाना एक
फ़ैशन हो गया है। ऐसे में कृष्णानन्द जी का जाना क्या चर्चा का
विषय बन सकता था। लेकिन साहित्य जगत में एक खालीपन तो
शिद्दत से महसूस किया गया। पत्रकार भाईयों ने अपने दायित्व का
निर्वहन किया।किसी शायर ने कहा है--
गये ज़माने के सिक्के लिये मैं बैठा हूँ,
किसी फ़कीर का आना इधर नहीं होता॥
कृष्णानन्द जी सम्भवतः इसी स्थिति में आ चुके थे। लेकिन
उनकी रचनायें , उनके शेर आज भी प्रासन्गिक हैं। सच पूछिये
तो चौबे जी आधुनिक कबीर थे,मन्सूर थे। उनकी एक ही पंक्ति
उनके जीवन-दर्शन का बोध कराने के लिये पर्याप्त है--
मंदिरों में आप मनचाहे भजन गाया करें।
मयकदा है ये, यहाँ तहजीब से आया करें॥

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