वेदव्यास



अंततः श्वेतकेतु का धैर्य जबाब दे गया।वे ऋषि उनकी माँ का हाथ पकड़कर संसर्ग के लिए उनकी कुटिया में ले जाने लगे थे।ऋषि उद्दालक मौन थे।श्वेतकेतु ने ऋषि का हाथ झटक दिया।श्वेतकेतु के इस अप्रत्यशित आचरण से उनके पिता क्षुब्ध हो उठे।उन्होंने समझाया ,पुत्र उनके आश्रम में मेरा भी इसी प्रकार सम्मान होता है।उनकी स्त्रियां भी सहजता से भोग हेतु प्रस्तुत रहती हैं।यही आर्य परम्परा है।किन्तु श्वेतकेतु असहज ही रहे।उन्होंने कहा कि मूल निवासी द्रविण निषाद क्यों एक स्त्री के साथ जीवन यापन करते हैं।इस प्रश्न से उनके पिता ने क्रोधित होकर उन्हें आश्रम से निकाल दिया।
पिता से दुत्कारे जाने के पश्चात् वे भटकते भटकते पराशर ऋषि के आश्रम में पहुंचे।ऋषि ने जब उन्हें देखा तो उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि मुनिवर आने का प्रयोजन बताएं।श्वेतकेतु ने अपना प्रश्न बताया।पराशर ने कहा वस्तुतः जन्म से सभी शुद्र होते हैं बाद में उनकी वृत्तियों के अनुसार वर्ण विभाजित होता है।एक निषाद का पुत्र मेरे जैसा प्रतिष्ठित ऋषि बन सकता है;और एक ऋषि का लड़का वाल्मीकि जैसा लुटेरा बन जाता है। किन्तु आपके यहाँ आर्यों में सोमरस और भोगविलास की अधिकता होने के कारण वे ब्रम्हज्ञान से विमुख हैं और जन्म से स्वयं को श्रेष्ठ कहने लगे हैं।पराशर ने उन्हें माँ सत्यवती से सामाजिक ज्ञान लेने हेतु भेजा।जहाँ माँ ने उन्हें वेदव्यास के जन्म की कथा सुनाई।माँ ने बताया कि त्रेता में मेरी कोख से अंशावतार लेने पर स्वयं विष्णु ने द्वापर में पुनः मेरी गोद में अवतरित होनेका वचन दिया था।अतः इस युग में वे मेरे पुत्र बने हैं।और इसके साथ ही उन्हें अनंत काल तक कुमारी रहने का वरदान भी मिला है।यह और बात कि समाज सम्मत न होने के कारण इनके पिता का नाम नहीं दिया जा सकता।श्वेतकेतु ने इस ज्ञान के बदले गुरु दक्षिणा देने की इच्छा जताई।तब माँ सत्यवती ने उन्हें विवाह संस्था निर्माण करने का आदेश दिया।कालांतर में श्वेतकेतु ने पराशर ऋषि को समाज से इतर कार्य करने के कारण कभी तर्पण नहीं मिलने का श्राप दिया।किन्तु भगवान  उन्हें अपना दिव्य स्वरुप दिखाकर ब्रम्हज्ञान दिया।श्वेतकेतु ने संतुष्ट होकर विष्णु के ज्ञानावतार गुरु वेदव्यास की पूजा अर्चना की।तभी से यह दिन गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाने लगा।
इस अवसर पर सभी निषादों को किताब और कलम की पूजा करनी चाहिए।

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