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Showing posts from September, 2012

हिंदी के सो काल्ड चिन्तक!

हिंदी को कमजोर बताने वाले बहुत हैं| वे इसी में खुश हैं की हिंदी को बेचारी,कमजोर ,जीविका हीन भाषा बताकर हिंदी भाषियों पर एहसान कर दिया| उन्हें अपने वक्तव्य पर ताली सुनकर गर्वानुभूति होती है|होनी भी चाहिए|आखिर वे जस्टिस काटजू के अनुयायी जो  ठहरे|उन्होंने पोस्ट बॉक्स का अनुवाद पत्रघुसेड़ लिखा था| जबकि पत्र-पेटी,पत्र-पेटिका या पत्र-मञ्जूषा जैसे अनेक विकल्प थे|ऐसे हिंदी के शुभ चिंतकों से ही हिंदी का उन्नयन होना है तो राम बचाए|हिंदी में मूल शब्द पचास हज़ार से अधिक हैं जबकि अंग्रेजी में मात्र दस हज़ार मूल शब्द हैं|भाषा की मजबूती उसकी शब्द संख्या -बल है|अंग्रेजी या अंग्रेजों ने विदेशी भाषाओँ से शब्द ग्रहण किये|आज उनके पास भारतीय भाषाओँ के लगभग एक लाख शब्द हैं|उनका शब्दकोष छः लाख के करीब है|हम हिंदी को सरल और सुग्राह्य बनाने की बजाय शुद्ध और क्लिष्ट करने में उर्जा व्यय कर रहे हैं|मैं हिंगलिश को या उनके पैरोकारों को धन्यवाद देता हूँ की वे हिंदी को सही मायने में अंतर्राष्ट्रीय भाषा बना रहे हैं|मैं उर्दू का, भारतीय सिनेमा का भी ऋणी हूँ की उन्होंने हिंदी को लोकप्रिय बनाने में पूर्ण योगदान दि...

मेरी दो कवितायेँ .....

मेरी घटिया किन्तु मंचीय कविता आपके अवलोकनार्थ- 1.आम आदमी में जो एलिट क्लास बना है|  चोरी की कविता से कालिदास बना है|| जली झोपड़ी तब उनका आवास बना है| इसी तरह से वर्तमान इतिहास बना है|| चोरी,डाका,राहजनी,हत्या ,घोटाला, इस क्रम से परकसवा श्रीप्रकाश बना है|| बिरयानी के साथ रिहाई मांग रहा है, न्याय व्यवस्था का कैसा उपहास बना है|| कौन मिलाता है केसर,असगंध ,आंवला, घास फूस से मिलकर च्यवन पराश बना है|| जूता-चप्पल ,गाली-घूंसा ,मारा-मारी, लोकतंत्र का संसद में बनवास बना है|| संसद है ये,जंगल है या कूड़ाघर है, या असीम के शब्दों में संडास बना है|| बलवंत सिंह हो या अफजल हो ,या कसाब हो, हर चुनाव इनकी फांसी में फाँस बना है||  2. वेदनाओं को नया स्वर दे रहा हूँ. मृत्यु को अमरत्व का वर दे रहाहूं  नग्न होकर घुमती है राजपथ पर ; लोग जीवित लाश जिसको कह रहे हैं. हा यही है इस व्यवस्था की नियंता ' साठ वर्षों से जिसे हम सह रहे हैं. तंत्र को जन का कलेवर दे रहा हूँ....... कुछ तो काला है ,सवाली पूछता है, या है पूरी दाल काली पूछता है, तुमने ली या उसने ली या जिसने ली, किसने कितनी ली दलाली पू...
हम तो यूँही भौक रहे हैं| आप मगर क्यूँ चौंक रहे हैं||  वादा करना और भूलना, आप के क्या-क्या शौक रहे हैं||  मेरा  दामन काला क्यूँ है| उसके घर उजिआला क्यूँ है|| कौन   हैं जो झोपड़ीकी  तरफ, बढ़ा  उजाला रोक रहे हैं|| एक  तरफ सड़ता अनाज है, बदले  में बेचनी लाज है, भूखे पेट की खातिर  अपना, तन  बाजार में झोंक रहे हैं|| आज तलक तो यही पढ़ा है, निजी स्वार्थ से देश बड़ा है, आज यही जब   पढ़ा रहा हूँ, नौनिहाल   क्यूँ टोक रहे हैं||

वर्ग-संघर्ष वर्ग-संघर्ष

तुम इतराते हो, कुचल कर एक मुट्ठी दूब और इतराता है तुम्हारा दर्प - या शासक होने का दंभ. किन्तु तुम नहीं जानते दूब दब-दब के भी हरियाती है. और तुम्हारे बूट? उनकी एक उम्र है उम्र! जिसकी मंजिल मृत्यु है, मृत्यु ! जो शाश्वत है.---सुरेश साहनी