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Showing posts from June, 2013

मेरी प्रिय ग़ज़लें

1 .वो पैकर-ए-बहार थे जिधर से वो गुज़र गये ख़िज़ाँ-नसीब रास्ते भी सज गये सँवर गये ये बात होश की नहीं ये रंग बेख़ुदी का है मैं कुछ जवाब दे गया वो कुछ सवाल कर गये मेरी नज़र का ज़ौक़ भी शरीक़-ए-हुस्न हो गया वो और भी सँवर गये वो और भी निखर गये हमें तो शौक़-ए-जुस्तजू में होश ही नहीं रहा सुना है वो तो बारहा क़रीब से गुज़र गये--नामालूम   2 .ख़ामोश रहने दो ग़मज़दों को, कुरेद कर हाले-दिल न पूछो। तुम्हारी ही सब इनायतें हैं, मगर तुम्हें कुछ खबर नहीं है। उन्हीं की चौखट सही, यह माना, रवा नहीं बेबुलाए जाना। फ़क़ीर उज़लतगुज़ीं ‘सफ़ी’ है, गदाये-दरवाज़ागर नहीं है॥  उज़लतगुज़ीं - एकांतवासी गदाये-दरवाज़ागर - दर का भिखारी तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते  जो वाबस्ता हुए,तुमसे,वो अफ़साने कहाँ जाते  तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की  तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते  चलो अच्छा काम आ गई दीवानगी अपनी  वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते बशीर बद्र--- कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न...

प्रबल प्रेम के पाले पड़ के

प्रबल प्रेम के पाले पड़ के भक्त प्रेम के पाले पड़के प्रभु को नियम बदलते देखा अपना आन टले टल जाए पर भक्त का मान न टलते देखा जिनके चरण कमल कमला के करतल से ना निकलते देखा उसको गोकुल की गलियों में कंटक पथ पर चलते देखा जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा शेष गणेश महेश सुरेश ध्यान धरें पर पार न पावें ताते बृज वोह हरी आये वृन्दावन की रास रचाएं जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा उसको गोकुल के माखन पर सौ सौ बार मचलते देखा जिनका ध्यान बिरंची शम्भू सनकादिक न सँभालते देखा उसको बाल सखा मंडल में लेकर गेंद उछालते देखा  जिनकी वक्र भृकुटी के भय से सागर सप्त उबलते देखा उसको माँ यशोदा के भय से अश्रु बिंदु दृग ढलते देखा प्रभु को नियम बदलते देखा  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

बुद्ध !तुम तो जानते थे ,

बुद्ध !तुम तो जानते थे , साधना हित वन गए थे , और फिर राहुल की मां ने, अनवरत की थी प्रतीक्षा ..... और यदि विपरीत इसके , यशोधरा वन गमन करती ' क्या उसे तुम मान देते , क्या यूँही करते प्रतीक्षा ? अप्प दीपो भव !का नारा , बुद्ध तुमने ही दिया है , स्त्रियाँ अब दीप बनकर , राह दिखलाने लगी हैं । जो बताई राह हमने , उससे कतराने लगी है || तुम बताओ साधना वश , जब उसे भी ज्ञान मिलता । लुम्बिनी में लौटने पर क्या उसे वह मान मिलता ? जो तुम्हे सबसे मिला था !!!!!!!!!!