मेरी प्रिय ग़ज़लें
1 .वो पैकर-ए-बहार थे जिधर से वो गुज़र गये ख़िज़ाँ-नसीब रास्ते भी सज गये सँवर गये ये बात होश की नहीं ये रंग बेख़ुदी का है मैं कुछ जवाब दे गया वो कुछ सवाल कर गये मेरी नज़र का ज़ौक़ भी शरीक़-ए-हुस्न हो गया वो और भी सँवर गये वो और भी निखर गये हमें तो शौक़-ए-जुस्तजू में होश ही नहीं रहा सुना है वो तो बारहा क़रीब से गुज़र गये--नामालूम 2 .ख़ामोश रहने दो ग़मज़दों को, कुरेद कर हाले-दिल न पूछो। तुम्हारी ही सब इनायतें हैं, मगर तुम्हें कुछ खबर नहीं है। उन्हीं की चौखट सही, यह माना, रवा नहीं बेबुलाए जाना। फ़क़ीर उज़लतगुज़ीं ‘सफ़ी’ है, गदाये-दरवाज़ागर नहीं है॥ उज़लतगुज़ीं - एकांतवासी गदाये-दरवाज़ागर - दर का भिखारी तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते जो वाबस्ता हुए,तुमसे,वो अफ़साने कहाँ जाते तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते चलो अच्छा काम आ गई दीवानगी अपनी वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते बशीर बद्र--- कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न...