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Showing posts from September, 2009

अपरिभाषित

देखो ना ये वही जगह है जहाँ मिला करते थे हम तुम मगर अब यहाँ बाग नहीं है आमों के वह पेड़ नहीं हैं महुवे की वह गन्ध नहीं है आज यहां अपना मकान है कितना ऊँचा कितना प्यारा अगर प्रेम हो रह सकता है जिसमें अपना कुनबा सारा यहीं कहीं पर हम दोनो ने एक दूसरे को चाहा था तुमने अपनी गुडिया को जब मेरे गुड्डे से ब्याहा था तुमको शायद स्मृत होगा इसी जगह पर खुश होते थे सींको के हम महल बनाकर और आज इस रंगमहल में वही नहीं है सूनी सूनी दीवारें हैं खुशी नहीं है वही नहीं है जिसको पाकर हम अनुबन्धित हो सकते थे जो सपने हमने देखे थे वह सपने सच हो सकते थे आज तुम्हारी आँखों मे कोई विस्मय है लोक-लाज से, शील-धर्म से प्रेरित भय है मै अवाक! होकर, औचक यह सोच रहा हूं तुम तुम हो या कोई और इसमे संशय है लिंग-भेद तो सम्पूरक है,आवश्यक है सत है, चित है, सदानन्द है सहज योग है, स्वयम सृष्टि है बचपन में हम अनावृत ही साथ पले है, साथ बढे़ है और आज परिधान सुशोभित देह-यष्टि है हम दोनो की पर समाज ने अपने वैचारिक स्तर से नग्न सत्य की किसी क्रिया को सोच लिया है जो शाश्वत है,ईस्वरीय है उसे अनैतिक मान लिया है आओ हम यह छद्म आवरण करे तिरो...

पत्र

तुमसे दूर यहाँ पर डेरा अर्थहीन है सांझ सवेरा मेरी भटकन दून नगर में मन का लगता तुम तक फेरा तुमसे.... साथ तुम्हारे सदा सरसता बिना तुम्हारे हाय विवशता तुम बिन मुझे अकेला पाकर नीरसता ने डाला घेरा.... तुमसे.... हूं विदेह संकेत समझना भूल गया हूं आपा अपना तुम बिन इस यायावर मन का देह बनी है रैन बसेरा...... तुमसे....... तुमसे केवल एक निवेदन यथा शीघ्र हो पत्र भेजना पत्र तुम्हारा धैर्य-दीप बन किन्चित कर दे दूर अन्धेरा.... ...तुमसे दूर यहाँ पर डेरा अर्थहीन है सांझ सवेरा.....॥ स्व: सतीश पाण्डेय को समर्पित!

मेरी खुशियां न छीन ले कोई

मेरी खुशियां न छीन ले कोई एहतियातन उदास रहता हूं! फ़कीराना मिजाज है लेकिन बारहा गमशनास रहता हूं!