एक और दिन बीत गया फिर.... भरा घड़ा ज्यूँ रीत गया फिर..... कितने स्वप्न सजाये हमने सपने फिर भी निकले सपने रात व्यतीत हुईं आँखों में पहर पलों में बीत गया फिर..... नून तेल लकड़ी का फेरा आज यहाँ कल वहां बसेरा और इन्ही झंझावातों में बदल हमारा मीत गया फिर.... किसे दोष दें किसे सराहें किसकी खातिर भरते आहें कब तक कोई प्रतीक्षा करता मैं हारा जग जीत गया फिर...... जितना दम था तुम्हे पुकारा चीख चीख कर स्वर भी हारा कदम थके और साँसे उखड़ी जीवन से संगीत गया फिर...... अब तो केवल सांस रुकी हैं सब आशाएं टूट चुकी हैं गुजरा समय कहाँ लौटा है क्या आएगा प्रीत गया फिर..... भरा घड़ा ज्यों रीत गया फिर..... एक और दिन बीत गया फिर...... माँ तुझ पर क्या लिख सकता हूँ। मैं तो खुद तेरी रचना हूँ।। तूने खुद को घटा दिया है तब जाकर मैं बड़ा हुआ हूँ।। आज थाम लो मेरी ऊँगली माँ मैं सचमुच भटक गया हूँ।। मुझसे गलती कभी न होगी आखिर तेरा ही जाया हूँ।। तेरी सेवा कर न सका मैं यही सोच रोया करता हूँ।। कैसे कर्ज चुकाऊँ तेरे क्या मैं कर्ज चुका सकता हूँ।। तेरी दुआ बचा लेती है जब मैं मुश्किल में होत...
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