फसले- बहार भी नहीं बादे-सबा नहीं।

शायद   मेरे  नसीब में   ताज़ा हवा नहीं।।


बरसों से बंद है मेरी तक़दीर की किताब

जैसे किसी ने कुछ भी लिखा या पढ़ा नहीं।।


पढ़ती थी मेरी भूख मेरी प्यास किस तरह

कहते थे सब कि माँ ने कहीं भी पढ़ा नहीं।।


इक बात तेरी दिल में मेरे गूंजती रही

मैंने सुना नहीं कभी तुमने कहा नहीं ।।


तुम क्या गये कि हम भी जहाँ से निकल लिए

तुम बेवफ़ा थे हम भी कोई बावफ़ा नहीं।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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