सुना है पत्र-पत्रिकाओं में भेजना पड़ता है।लोग अक्सर बताते रहते हैं कि वे चार पांच सौ(पत्र - पत्रिकाओं ) में छप चुके हैं।हुई न सुपिरियारिटी कॉम्प्लेक्स वाली बात।एक अंतर्राष्ट्रीय कवि बता रहे थे कि "उनकी सैकड़ों किताबें  छप चुकी हैं। तुम्हरी कित्ती छपीं। छपवा डारो। नहीं तो मुहल्ले भर के रहि जाओगे। परसो नजीबाबाद ज्वालापुर यूनिवर्सिटी में डॉक्टरेट की डिग्री से नवाजा गया है। अभी हमने अमरीका और वेस्टइंडीज में ऑनलाइन कविता पढ़ी है।आस्ट्रेलिया वाले लाइन लगाए हैं।' बाद में पता चला कि गेंदालाल पच्चीसा के नाम से उन्होंने दस सैकड़ा प्रतियां छपवाई हैं ,जिसे वे गोष्ठियों में बांटा करते हैं।

  खैर सही बात है यहां तो मुहल्ले में कउनो घास नहीं डालता। क्या करें ! चुपचाप सुनते रहे। कल एक मित्र में एक साप्ताहिक परचून अखबार वाले से मिलवाया। वे बताने लगे मैं पत्रकार हूं।रूलिंग पार्टी की समाचार प्रकोष्ठ का मंत्री भी हूं। मेरा अख़बार लखनऊ तक जाता है। कहो तो एक कविता छाप दें। बस 500/₹ की मेंबरशिप लेनी पड़ेगी।क्योंकि मैं ही  मार्केटिंग भी देखता हूं। मैने असमर्थता जताई और उन्हें चाय पिला कर चलता किया।

शरद जोशी ने लिखा है कि हम इंदौर वालों का कोई माई बाप नहीं पर यह लाल डब्बा तो है। इसमें लिख लिख कर डालते जाओ।कभी तो किरपा बरसेगी।

   अब उनकी बात थोड़ा थोड़ा समझ मे आने लगी है। खैर फ्री में तो #जनवादी भी घास नहीं डालते हैं।

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