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Showing posts from June, 2024
 गीत सुधियों के समर्पित कर रहा हूं। आज तुझको स्वत्व अर्पित कर रहा हूं।।  भाव से ही भाव ऊर्जित कर रहा है।। को चुका अस्तित्व अर्जित कर रहा हूं।। प्रेम में
 तिजारत है हमारी खानदानी हमारे खून में व्यापार भी है। तुम्हारे वास्ते यह मुल्क़ होगा हमारे वास्ते बाज़ार  भी है।।
 तो क्या मैं जान गिरवी रख रहा हूँ। फ़क़त ईमान गिरवी रख रहा हूँ।। उम्मीदें रख रहा हूँ आज रेहन कई अरमान गिरवी रख रहा हूँ।। अभी सौदा हुआ है तीरगी से अभी दिनमान गिरवी रख रहा हूँ।। ख़ुदा मिलता उसे भी बेच देता अभी इंसान गिरवी रख रहा हूँ ।। ग़ज़ल दो चार  से हासिल न होगा मेरा दीवान गिरवी रख रहा हूँ।। सुन्दर साहनी
 मन नैनों में झूल गया फिर। इश्क कहां स्कूल गया फिर।। काया की माया में मूरख मायापति को भूल गया फिर।। इश्क़ गोपियों को देकर वह कब कालिन्दी कूल गया फिर।। एक फूल लेने आया था देकर कितने शूल गया फिर।। पनघट से प्यासा लौटा मैं मिलना आज फिजूल गया फिर।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मौत जब ज़िंदगी का हासिल है। जीस्त फिर क्यों मेरे मुक़ाबिल है।। मेरी खुशियों का मैं ही क़ातिल हूं या कोई और इसमें शामिल है।। उफ ये मासूमियत सुभान अल्लाह कौन बोलेगा हुस्न कातिल है।। इब्तिदा है सफ़र की वो शायद हम जिसे सोचते हैं मंज़िल है।। तुम जिसे ले चुके सिवा उसके कैसे कह दें कि और इक दिल है।। सुरेश साहनी कानपुर
 जब भी लिखने गीत चले हम। शब्दकोश से रीत चले हम।। तुम प्रवाह के साथ बह गए धारा के  विपरीत  चले हम।।
 तुमको साहिल से उम्मीदें हैं क्या। अब भी मंज़िल से उम्मीदें हैं क्या।। हौसला है तो सफर जारी रख सिर्फ़ राहिल से उम्मीदें हैं क्या।। अब भी आंखों में मुहब्बत क्यों है अपने क़ातिल से उम्मीदें हैं क्या।। मुझको साक़ी से नहीं है उम्मीद तुम को महफ़िल से उम्मीदें हैं क्या।।
 तुम अगर बेवफ़ा न हो जाते। इश्क़ के देवता न हो जाते।। तुम नहीं हो जो इश्क़ में क्या हो इश्क़ करते तो क्या न हो जाते।। इश्क़ वालो को मौत आती तो हम भी अब तक फना न हो जाते।। तुमको ख़ुद पर यकीं न था वरना अपने वादे वफ़ा न हो जाते।। जीस्त फिरदौस हो गयी होती तुम जो सच मे ख़फ़ा न हो जाते   सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ठीक है हमसे वफ़ा मत करिये। पर हमें ग़म भी अता मत करिए।। आप हैं ग़ैर के होते रहिये हमको अपना भी कहा मत करिए।।साहनी
 दुनिया की पाँच तीन पे लिखना पड़ा मुझे। इक बेवफ़ा हसीन पे लिखना पड़ा मुझे।। अहले सुखन ने छोड़ी कहाँ है कोई जगह फिर फिर  लिखी ज़मीन पे लिखना पड़ा मुझे।।
 बेसबब कहते रहे सुनते रहे। रह सतह पर सीपियाँ चुनते रहे।। योजनाओं के अमल से दूर हम सिर्फ़ परिणामों पे सिर धुनते रहे।। हर अयाँ से तो थे बेपरवाह हम जो नहीं था हम उसे गुनते रहे।। हासिलों से खुश न रह पाए कभी खो न दें इस फ़िक्र में घुनते रहे।। उम्र भर बेकार की चिन्ता लिए साहनी जलते रहे भुनते रहे।। साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
 कौन लेकर   बहार   आया है। है वो  मोहूम या कि साया है।। कैसे कह दूँ मैं सिर्फ़ ख़्वाब उसे हर तसव्वुर में वो  नुमाया है।। खार कुछ  नर्म नर्म   दिखते हैं कौन    फूलों में   मुस्कुराया है।। दस्तकें बढ़ गयी हैं खुशियों की किसने दिल का पता बताया है।। बेखुदी क्यों है इन हवाओं में क्यों फ़िज़ा  पर खुमार छाया है।। आज वो भी बहक रहा होगा जिसने  सारा ज़हां  बनाया है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कि गुज़री है  अभी  आधी उमरिया। अभी भी राह तकते हैं सँवरिया ।। कई सोलह के सावन जा चुके  हैं अभी भी हूँ पिया की मैं बवरिया।। मैं बिगड़ी हूँ मेरी बाली उमर से नही है सूझती अब भी डगरिया।। न जाने किस नगर से आ रही हूँ न् जाने जाऊंगी मैं किस नगरिया।। मुहूरत एक दिन आएगी तय है मगर कब आयेगी है कुछ खबरिया।। अभी साजन के घर पहुची नहीं हूँ अभी से हो गयी मैली चदरिया।। पिया आएंगे डोली ले के जिस दिन सजेगी साहनी उस दिन गुजरिया।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ख़्वाब देखें कि हम जगायें हमें। ख़ुद से रूठें की हम मनायें हमें।। मक़तबे-इश्क़  का सबक यारब तुझ से सीखें कि हम सिखायें हमें।।साहनी
 नल और नील निषाद राजा थे ऐसा कतिपय ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। उन्हें वरदान था या वे जानते रहे होंगे कि कौन कौन से पत्थर पानी विशेषकर समुद्र के भारी जल में तैर सकते हैं। तभी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने नल नील बंधुओं से सेतु बंधन का आग्रह किया था।  यह भी संभव है कि उन्होंने सेतु बंधन में नावों की श्रृंखला बनाकर उन पर पत्थर डाले हों। क्योंकि मेरा मानना है कि मर्यादा पुरुषोत्तम ने किसी चमत्कार का आश्रय तो नहीं ही लिया होगा। किंतु वे युद्ध कौशल के नायक थे इसमें कोई संदेह नहीं, जिसके चलते उन्होंने कोल भील और वानर समुदाय को संगठित कर रावण जैसे अजेय योद्धा को पराजित किया और मृत्यु के घाट पहुंचाया।  खैर मैं तो फिलहाल राम से शिकायत का भाव ही रखूंगा। और मुझे पता है कि यह मेरे लिए किसी भी भांति अहितकर नहीं सिद्ध होगा। तुलसी बाबा ने कहा भी है कि -   भाव कुभाव अनख आलसहूं।     नाम जपत मंगल दिस दसहूं।।
 इस तरीके के काम कर देगा। मुल्क़ को बे निजाम कर देगा। क्या पता कि चाय के बदले सबका जीना हराम कर देगा।।
 किसी सूरत भी क्यों ये काम कर दें। तुम्हें हम किसलिये बदनाम कर दें।। कभी बाज़ार की ज़ीनत न बनना कहीं ख़ुद को न हम नीलाम कर दें।।साहनी
 क्या हुआ तुम जो छोड़ जाओगे। क्या बिगड़ जायेगा बताओगे।। क्या मैं मर जाऊंगा मुहब्बत में या कि तुम और उम्र पाओगे।।साहनी
 फिर सिफर निकला मुक़द्दर में मुक़द्दर में। फिर नदी डूबी समंदर में समंदर में।। क्या ढहा मुझमें कोई दिल या खण्डहर टूटा कोई घर में कोई घर मे।। कोई कांटा चुभ गया तो क्या क्यों चुभे हैं फूल बिस्तर में बिस्तर में।।
 जिन्दगी के गीत गाना आ गया। हां हमें भी मुस्कुराना आ गया।। बिन सुने भी दिल ने वो सब सुन लिया बिन कहे सब कुछ बताना आ गया।। शक सुब्हा यूं दुश्मनों पर कम हुए दोस्तों को आजमाना आ गया।। उसने बोला था सम्हलना सीख लो और हमको लड़खड़ाना आ गया।। उसको नाकाबिल समझिए साहनी जिसको भी खाना कमाना आ गया।।  दौलतेगम पाके उनसे यूं लगा हाथ कारूं का खज़ाना आ गया।। लौट आया हुस्न फिर बाज़ार से क्या मुहब्बत का ज़माना आ गया।। सुरेश साहनी,कानपुर
 तुम जो मिलते तो तुमको समझाते। झूठ हैं प्यार वार के नाते।। तुम मुझे याद तो नहीं करते फिर मुझे भूल क्यों नहीं जाते।। जिस्म किसको दिया नहीं मालूम दिल भी जाकर उसी को दे आते।। अब मिलोगे यकीं नहीं फिर भी तुम जो मिलते तो खूब बतियाते।। तुम थे गोया कोई हसीं मतला काश हम तुमको गुनगुना पाते।।
 हमसे अब तक कोई ग़ज़ल न हुई। कोई मतला कोई पहल न हुई।। हश्र पर आ गए हयात के यूँ गोया अपने लिए अज़ल न हुई।।साहनी
 हम कहाँ तुम कहाँ निजाम कहाँ। वो कहाँ और उसका धाम कहाँ।। पा लिया आपने अवध अपना हम प्रतीक्षित हमारे राम कहाँ।।
 घर आंगन संसार वही थे। खुशियों के आगार वही थे।। थे तो सरकारी विद्यालय पर विकास के द्वार वहीं थे।।
 बीमा डूबेगा बैंक डूबेंगे। इसमें ज़रदार ख़ाक़ डूबेंगे।। अब बरहनों  का कुछ न बिगड़ेगा हम गरेबान - चाक डूबेंगे।।साहनी
 उम्र इक उलझनों को दी हमने। ज़िन्दगी अनमनों को दी हमने।। अपनी इज़्ज़त उछलनी यूँ तय थी डोर ही बरहनों को दी हमने।। गालियाँ दोस्तों में चलती हैं पर दुआ दुश्मनों को दी हमने।। भूल कर अपने ख़ुश्क होठों को मय भी तर-दामनों को दी हमने।। सोचता हूँ तो नफ़्स रुकती है सांस किन धड़कनों को दी हमने।। जानकर भी ख़मोश रहने की कब सज़ा आइनों को दी हमने।। क्यों तवज्जह सराय-फानी पर साहनी मस्कनों को दी हमने।। बरहनों/ नंगों, नग्न ख़ुश्क/ सूखे तरदामन/ भरे पेट,  गुनाहगार नफ़्स/ प्राण मस्कन/ मकान सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कुछ नया कर के देख लेते हैं। दिल तेरा कर के देख लेते हैं।। यूँ तो तुझ पर यकीं नहीं लेकिन इक दफा कर के देख लेते हैं।।साहनी
 तुम अगर साथ चल दिये होते। हमने मानक बदल दिये होते।। ज़िन्दगी यूँ न ग़र्क़ होती जो प्यार को चार पल दिये होते।।साहनी
 छपाक ! छपाक!! नदी में कूदते थे ,तैरते थे मन भर नहाते थे वरुण के बेटे बाढ़ में बाढ़ के बाद भी सर्दी गर्मी बरसात में यानी साल भर नदी ही हमारा घर दुआर आंगन दलान खेत खलिहान  सब थी धीरे धीरे बांध बने ,पुल बना मिल बनी ,मिल को पानी मिला मिल ने पानी छोड़ा मछलियों ने छोड़ दिया नदी में आना जाना तैरना इठलाना मंडराना और नदी छोटी हो गयी बड़े हो गए वरुण के बेटे बेटे अब नदी में नहीं नहाते बेटे अब बिकना चाहते हैं..... Suresh Sahani कानपुर
 बेशक़ तुम चुप रह सकते हो कोई जस्टिस मरता है तो कोई अफसर मरता है तो कुछ किसान भी जी न सके तो आख़िर तुम क्या कर सकते हो  बेशक़.... सड़क बिक गयी बिक जाने दो रेल बिक रही बिक जाने दो जल नभ भी यदि बच न सके तो बिकने दो क्या कर सकते हो बेशक़.......
 मैं गांधी जी की निंदा करता हूँ।महाजनो येन गतः स पन्था,। जैसा बड़े लोग करें वैसा ही अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करने से आदमी सीएम पीएम और सेलिब्रेटी  बन सकता है।और फिर वचने का दरिद्रता, एक गाली ही तो देना है।फेमस होने का ये आसान तरीका है। गान्धी जी ने उस दक्षिण अफ्रीका में विक्टोरिया शासन का विरोध करने का दुस्साहस किया, जहाँ भारत से लोग अधिकृत गुलाम बनाकर ले जाये जाते थे। अब इस विरोध से भारत का क्या लेना देना। वे सम्पन्न परिवार से थे।महंगे महंगे सूट पहनते थे।दिखावे के लिए आधी धोती पहनने लगे।फिर जीवन भर नहीं पहने।उन्होंने जन आंदोलनों में भामाशाहों की जरूरत को समझते हुए उन्हें जोड़ा।इसकी आड़ में देश की बहुतेरी गरीब जनता के त्याग और बलिदान बेमानी हो गए।हाँ इसका बड़ा लाभ यह हुआ कि जन आंदोलनों की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक तंगी दूर हो गयी।और भारत को एक राष्ट्रीय नायक मिल गया। वे देश के कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करते थे।इस वजह से भी देश को भारी नुकसान हुआ।देश का वैसा औद्योगिक विकास नहीं हो पाया आज जैसा मोदी जी कर रहे हैं। गांधीजी देश को मोटा खादी पहनने का सन्देश देते रहे।इससे देश फैशन के क्षेत्
 यहाँ सब गुल ओ लाला दिख रहा है। मुझे हर सूं उजाला दिख रहा है।। दिखाओ लाख बातें  दो जहाँ की मैं भूखा हूँ  निवाला  दिख रहा है।। हमें जो दाल काली दिख रही थी वही मुर्ग़-ओ-मसाला दिख रहा है।। अभी कुछ दिन उसी की ही चलेगी अभी वो औज़-ए-ताला दिख रहा है।। मैं अँधा हूँ दिवाली ही कहूंगा बला से वो दिवाला दिख रहा है।। मेरी शादी कराची में करा दो मुझे इमरान साला दिख रहा है।। वो कुछ भी बेचता है बेचने दो हमें वो काम वाला दिख रहा है।। तुझे अच्छा नहीं देगा दिखाई  मुझे तू आँख वाला दिख रहा है।। मेरे आका को तुमसे क्या मिलेगा उसे धीरू का लाला दिख रहा है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 आज लिखने का समय हैं, मौन हो तुम पीढियां कोसेंगी तुम को ,ये न समझो वेध देंगे शब्द शर शैय्या बनाकर उत्तरायण की प्रतीक्षा में धरा पर पूर्व उसके द्रोपदी सहसा ठठाकर पूछ लेगी उस घडी क्यों मौन थे तुम दे न पाओगे कोई उत्तर पितामह अश्रु आँखों से बहेंगे ,कंठ रह रह- कर कहेंगे वेदना टोकेगी मत कह अब भला क्या उस समय तो मौन थे तुम और शब्दों से बिंधे तुम याचना में मृत्यु मांगोगे व्यथा में वेदना में भाव प्रायश्चित के होंगे याचना में मृत्यु हंस देगी कहेगी कौन हो तुम और तड़पो और तड़पो और तड़पो और हर अन्याय पर तुम आँख मूँदो सत्य को असहाय छोडो साथ मत दो युग युगों तक शब्द शरशायी रहो तुम देख कर अन्याय क्यूँकर मौन थे तुम।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 #ग़ज़ल मेरी हर इल्तिज़ा को टाल गया। काम अपना मगर निकाल गया।। उससे कोई जबाब क्या मिलता पूछ कर मुझसे सौ सवाल गया।। इसमें कोई ख़ुशी की बात नहीं उम्र का और एक साल गया।। खिदमतें वालिदैन की करना जानें कितनी बलायें टाल गया।। लड़खड़ाये थे कुछ कदम लेकिन एक ठोकर हमें सम्हाल गया।। मेरी ख़ातिर हराम क्या है जब शेख़ करके मुझे हलाल गया।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 मुसलसल बड़े सवाल उठाए चला गया।। लेकिन बिना जवाब बताए चला गया।। आया था सर निगूँ तो लगा क्या करेगा वो मक़तल में अपना सर जो उठाये चला क्या।। मंज़िल का पता पूछने का वक़्त ही न था मंज़िल को ही मुकाम पे लाये चला गया।।
 कुछ ख़बर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ। पैग भर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। इन परिंदों से चरिंदों को भला है उज़्र क्या पर कतर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। क्या कोई सुकरात फिर पैदा हुआ है शहर में फिर ज़हर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। हमको है मालूम दावे इंतेखाबी थे मगर क्या न कर  देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। एक भूखा जानवर कैसे तड़पता देखते ज़िब्ह कर  देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। इसको रोटी इनको रोजी उनको कपड़ा साथ मे सबको घर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। खेत भूखों के लिए वादे में प्यासों के लिए  इक नहर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132 srshsahani@gmail.com
 जीनते बाजार समझा है मुझे। क्या कभी इक बार समझा है मुझे।। उसकी आंखों में हवस है और वो कह रहा है प्यार समझा है मुझे।। पूछना तफसील से हाले शहर क्या फकत अख़बार समझा है मुझे।। कर गया जिक्रे मदावा इस तरह क्या कोई बीमार समझा है मुझे।।
 अपने हर सू तो आइना रक्खा। हुस्न ने था मुझे बना रक्खा।। मुझको आशिक़ नया नया कहकर उसने दिलवर  कोई नया रक्खा।। मर न पाया न जी सका खुलकर उसने जैसे कि अधमरा रक्खा।। दूर रहने नहीं दिया उसने पास रख्खा तो फासला रक्खा।। भूल जाने को कर लिये आशिक़ याद करने को एक ख़ुदा रक्खा।।
 आज उससे मिलन है अच्छा है और मेरा भी मन है अच्छा है।।  काश दो चार लोग ये कहते साहनी का सूखन है अच्छा है।।
 माना जंगल पुरखतर है। उससे बदतर तो शहर है।। आदमी ज्यादह बुरा है जानवर तो जानवर है।। आज किस पर हो भरोसा जबकि अपनों से भी डर है।।
 उसका मुझसे या मेरा उससे जो इक नाता है। सब ये कहते हैं इसे इश्क कहा जाता है।। फोन स्विच ऑफ है या और कोई है कारण कम से कम कुछ नही मैसेज तो दिया जाता है।।
 आज अपनी जिन्दगी लगने लगी बोझिल मुझे। उसने वापस ले लिया कल ही दिया था दिल मुझे।। कत्ल जिसके हाथ कल मेरी वफा का हो गया उसने सबके सामने ठहरा दिया क़ातिल मुझे।। इश्क क्या दो चार पल की कैफियत का नाम है उम्र भर के रंजोगम जो हो गये हासिल मुझे।। पूछ मत फिर शीशा -ए - दिल क्या हुआ टूटा तो क्यों एक पत्थर दिल ने जब ठहरा दिया बेदिल मुझे।। आ गया  गिरदाब से भी बच निकलने का हुनर अब समंदर में रहूंगा ढूंढ मत साहिल मुझे।।
 रहते जब वो साथ में पल पल होती रार। जरा दूर वो क्या हुए लगा उमड़ने प्यार।। लगा उमड़ने प्यार नींद आंखों से भागी खोया खोया वार रात भी जागी जागी विरह व्यथा की कथा साहनी किससे कहते आदत जो बन गई साथ की रहते रहते।।
 सुना है पत्र-पत्रिकाओं में भेजना पड़ता है।लोग अक्सर बताते रहते हैं कि वे चार पांच सौ(पत्र - पत्रिकाओं ) में छप चुके हैं।हुई न सुपिरियारिटी कॉम्प्लेक्स वाली बात।एक अंतर्राष्ट्रीय कवि बता रहे थे कि "उनकी सैकड़ों किताबें  छप चुकी हैं। तुम्हरी कित्ती छपीं। छपवा डारो। नहीं तो मुहल्ले भर के रहि जाओगे। परसो नजीबाबाद ज्वालापुर यूनिवर्सिटी में डॉक्टरेट की डिग्री से नवाजा गया है। अभी हमने अमरीका और वेस्टइंडीज में ऑनलाइन कविता पढ़ी है।आस्ट्रेलिया वाले लाइन लगाए हैं।' बाद में पता चला कि गेंदालाल पच्चीसा के नाम से उन्होंने दस सैकड़ा प्रतियां छपवाई हैं ,जिसे वे गोष्ठियों में बांटा करते हैं।   खैर सही बात है यहां तो मुहल्ले में कउनो घास नहीं डालता। क्या करें ! चुपचाप सुनते रहे। कल एक मित्र में एक साप्ताहिक परचून अखबार वाले से मिलवाया। वे बताने लगे मैं पत्रकार हूं।रूलिंग पार्टी की समाचार प्रकोष्ठ का मंत्री भी हूं। मेरा अख़बार लखनऊ तक जाता है। कहो तो एक कविता छाप दें। बस 500/₹ की मेंबरशिप लेनी पड़ेगी।क्योंकि मैं ही  मार्केटिंग भी देखता हूं। मैने असमर्थता जताई और उन्हें चाय पिला कर चलता किया। श
 और हम खुद पे ध्यान कैसे दें। अपने हक़ में बयान कैसे दें।। पास मेरे ज़मीन दो गज है आपको आसमान कैसे दें।। गांव की सोच जातिवादी है उनको बेहतर प्रधान कैसे दें।। इसमें मेरी ही रूह बसती है तुमको दिल का मकान कैसे दें।।  एक चंपत हमें सिखाता है ठीक से इम्तेहान कैसे दें।। वो भला है मगर पराया है उसको दल की कमान कैसे दें।। भेड़िए गिद्ध बाज तकते हैं बेटियों को उड़ान कैसे दें।। ये अमीरों के हक से मुखलिफ है सबको शिक्षा समान कैसे दें।। साहनी ख़ुद की भी नहीं सुनते उल जुलूलों पे कान कैसे दें।। सुरेश साहनी कानपुर
 हमने समझा वे सबको घर देंगे। क्या पता था वे सिर्फ़ डर देंगे ।। उनके वादे तो थे करोड़ों के अब वे हम आप को सिफर देंगे।। भाईचारे पे इक सवाल न हो इतनी नफरत दिलों में भर देंगे।। हौसले तक जिन्होंने छीन लिए वो कहां हमको बालो पर देंगे।।
 जब भी उसका ख्याल आता है। क्या कहें क्यों मलाल आता है।। आज भी रात के ख्यालों में उस गली से गुलाल आता है।। ज़िंदगी को जवाब देना था ज़िंदगी से सवाल आता है ।।
 शनी निवारण के लिये दिया उसे निपटाय। फिर आरी से जिस्म के टुकड़े कई बनाय।। टुकड़े कई बनाये राज छिप जाए जिससे अच्छी तरह पकाय कुकर प्रेशर में हिस्से कह सुरेश कविराय किया श्वानों को अर्पण। अबला का बलिदान कर गया शनी निवारण सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मुसलसल हम सफ़र में हैं। भले हम अपने घर में हैं।। हैं अपने अजनबी जैसे कई घर एक घर में हैं।।साहनी
 इक पुराना चलन समझ लेना रूह को ही बदन समझ लेना बेज़मीरों की इस निज़ामत में जिस्म ही को कफ़न समझ लेना।। साहनी
 क्या किसी को वक़्त बंजारा लगा। क्यों ज़हाँ को मैं ही आवारा लगा।। जाने कितनों ने मुझे वहशी कहा सिर्फ़ इक लैला को बेचारा लगा।। अश्क़ खारे हैं मेरे तस्लीम है दिल का दरिया क्यों उन्हें खारा लगा।। क्या मेरा इंसान होना ऐब था मैं ही क्यों आसान सा चारा लगा।। क्यों नहीं मैं अपना लग पाया उन्हें जब मुझे अपना ज़हां सारा लगा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 जब हमारे देश की जनता  हुकूमत के सामने सर उठाती है तो कष्ट होता है।जबकि इसी जनता के लिए लगभग चौहत्तर वर्षों में हुकूमत सैकड़ों लाख करोड़ के कर्ज ले चुकी है। आज विकास के  हर क्षेत्र में हम विश्व का पीछा करते नज़र आते हैं। दुनिया भर के देश हमसे डर डर कर के आगे भाग रहे हैं।यहां तक कि बंग्लादेश भी हमसे बराबरी करने की हिम्मत नहीं करता।हाँ पाकिस्तान कभी कभार हमसे पिछड़ेपन में बराबर आने की कोशिश कर लेता है। इसका मूल कारण यही है कि यहां की जनता हुकूमत का आभार नहीं मानती। देश के बच्चे बच्चे के लिए सरकार ने चालीस से पचास लाख का कर्ज ले रखा है। यानी सरकार के उपकारों के बोझ तले बच्चे बूढ़े सभी दबें हुये हैं। यह सरकार का बड़प्पन है कि वो आप पर लड़े कर्ज के बोझ का व्याज नहीं लेती।    किंतु यहाँ के लोग समझते ही नहीं। अभी एक नेता को मात्र विधायक/सांसद बनवा देने भर से वह नेता बड़े नेता का तीन चार साल के लिये ऋणी हो जाता है।बाकी एक दो साल वो पुनः टिकट की दावेदारी के लिए बचा के रखता है ताकि पुनः दावेदारी न बन पाने पर रूठने/धोखा देने का स्कोप बना रहे।  अब देखिए कोरोना वैक्सीन के लिए एक सज्जन डॉक्टर का आभार व्यक्त
 मीर बन गालिब के फन की ओर चल हमनवा बन हमसुखन की ओर चल वक्त का सूरज निकलने को है उठ ख़्वाबगाहों से सहन की ओर चल अंततः परदेश है परदेश ही लौट ले अपने वतन की ओर चल।। जिस्म है गोया पुराना पैरहन अब नये इक पैरहन की ओर चल।। साहनी लहजा पुराना छोड़ कर अब नये तर्जे-कहन की ओर चल।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पढ़ोगे तो तुम्हें पढ़ने न देगा। कोई सीढ़ी तुम्हें चढ़ने न देगा।। बड़े लोगों के झांसे में न रहना कोई बरगद तुम्हें बढ़ने न देगा।।सुरेश साहनी
 सजीले ख़्वाब आने की वजह थे। कभी तुम मुस्कुराने की वजह थे।। ज़माने की नज़र  यूँ ही नहीं थी तुम्हीं तो इस निशाने की वजह थे।। ये माना अब नहीं हो दास्तां में मग़र तुम हर फ़साने की वजह थे।। अभी तुम मेरे रोने की वजह हो कभी हँसने हँसाने की वजह थे।। बताओ क्या करें इस  कश्रे-दिल का तुम्हीं इस आशियाने की वजह थे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 अक्सर ख़्वाबों की रखवाली में बीता। सारा जीवन ख़्वाबख़याली में बीता।।
 सौ बरस यार की उम्र हो सौ बरस प्यार की उम्र हो सौ बरस मान की उम्र हो सौ ही मनुहार की उम्र हो सौ बरस राधिका तुम रहो सौ बरस सांवरे तुम रहो तुम भी जोगन रहो सौ बरस सौ बरस बावरे तुम रहो सौ बरस अंक की उम्र हो सौ ही अँकवार की उम्र हो मेरा घर मेरा परिवार तुम घर की दर और दीवार तुम लोक तुम मेरे परलोक तुम धर्म तुम मेरे संसार तुम  सौ बरस हाथ मे हाथ हो सौ ही अभिसार की उम्र हो सौ बरस राग की उम्र हो सौ बरस रार की उम्र को सौ बरस प्रीति के लाज से नैन रतनार की उम्र हो सौ बरस तक रहे दृग तृषा सौ अधर धार की उम्र हो।। सौ बरस यह प्रभायुत रहो सौ बरस मान्यवर तुम रहो बार सौ आये मधुयामिनी बार सौ कोहबर तुम रहो सौ बरस स्वास्थ्य सुख से भरे भाव भण्डार की उम्र हो।।