जीने के उपादान भी रहने नहीं दोगे।

मर जाने के सामान भी रहने नहीं दोगे।।


सुख चैन के बागान भी रहने नहीं दोगे।

दुख-दर्द को आसान भी रहने नहीं दोगे।।


क्या सोच के मीरा को ज़हर देने चले हो

क्या तुम कोई रसखान भी रहने नहीं दोगे।।


निर्माण पे निर्माण किये जाते हो हर ओर

ये बाग वो शमशान भी रहने नहीं  दोगे।।


उलझन से मसाइल से मुहब्बत है तुम्हे यूँ

ये तय है समाधान भी रहने नहीं दोगे।।


हिन्दू जो कहे जाति तो पूछोगे यक़ीनन

फिर हक़ से मुसलमान भी रहने नहीं दोगे।।


आबादियों से आपको नफरत है पता है

बरबादो- बियावान भी रहने नहीं दोगे।।


ऐ वहशतो-नफ़रत-ओ-हिकारत के परस्तों

क्या तुम हमें इंसान भी रहने नहीं दोगे।।


किस ज़िद पे उतर आये हो धरती के खुदाओं

क्या अब कहीं भगवान भी रहने नहीं दोगे।।


अब साहनी जो भी था ग़ज़लगो था कि कवि था 

उसकी कोई पहचान भी  रहने नहीं दोगे।।


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

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