कल शहर की एक प्रतिष्ठित काव्य गोष्ठी में शहर के तमाम नामचीन शोअरा- ए - कराम तशरीफ़ फरमा थे।क्षमा करिएगा वहां तमाम सारे कवि उपस्थित थे।कुल मिलाकर एक बेहतरीन गोष्ठी रही। 

     ऐसा लिखने की परम्परा है। एक बार हम भी एक कवि सम्मेलन में शिरकत करने गए ।कार्यक्रम का मूल मकसद एक विधायक जी का स्वागत करना था जो कार्यक्रम के बीच में आए थे और दो कवियों को बेमन से सुन सुना कर अपने गिरोह के साथ निकल लिए थे। जैसे तैसे बचे खुचे श्रोताओं के बीच कार्यक्रम संपन्न हुआ। साथ में भंडारा आयोजित था ,इसलिए उपस्थिति गई गुजरी होने से बच गई थी। लेकिन अगले दिन सहभागी कवि मित्रों ने बढ़ा चढ़ा कर कार्यक्रम की सफलता के किस्से पोस्ट किए,और बताया कि बेशक यह कवि सम्मेलन गांव में था परंतु फीलिंग किसी मेट्रो पॉलिटन सिटी के समान ही होती रही। 

सबसे ख़ास बात यह रही कि जो कवि नहीं थे उन्होंने अच्छे कवि बनने के और काव्य कला के टिप्स दिए। कुछ वरिष्ठ कवियों ने नवोदितों का प्रोत्साहन किया। वहीं कुछ गरिष्ठ कवियों ने अपने ज़माने के मंचों पर बड़े बड़े तीर मारने के किस्से सुनाए और बताया कि उनकी कविता मंचों पर आग लगाया करती थी। मैने सोचा शायद अब वे ऐसा कोई गीत सुनाएंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।पीछे से अग्निहोत्री जी फुसफुसाए ," ससुरा बीड़ी पीके वहीं फेंक दिया करता था। एक बार चादर जल गई थी।" 

   खैर नए कवियों को गरिष्ठ कवियों द्वारा अदब और तहजीब से जुड़ी तमाम नसीहतें और हिदायतें दी गईं । अक्सर बड़े नाम वालों से अकेले मिलने पर कुछ ऐसा ही अनुभव रहा है जैसा कि किसी बड़े खुडपेंच शायर ने कहा है:- 

   बड़ा हम भी सुनते थे काज़ी की दुम है

   वहां जा के देखा तो रस्सी बंधी थी।।

खैर गोष्ठी में ऐसे ही किसी कर्रे शायर ने गोष्ठी में बताया कि, कुछ लोग एक ही रचना को हर बार सुना कर ताली बटोरते हैं। जबकि गोष्ठी में हर बार अपनी ताज़ा रचना पढ़नी चाहिए। और दूसरी बात यदि कविता नहीं आती है तो ऐसे कवियों का पढ़ना जरूरी भी नहीं है।"

  उनकी यह बात उनके दंभ की पुष्टि कर रही थी। यह सीधे सीधे नए रचनाकारों या कम लिखने वालों को हतोत्साहित करने वाली बात थी।किंतु मुझे लगा कि यह बात कहीं न कहीं मुझे निशाना बनाकर कही गई है। ऐसा अक्सर होता आया है। गोपाल दास नीरज जी ने कहा भी है कि:-

     " जिनको पीने का सलीका ना पिलाने का शऊर

लोग ऐसे भी चले आते हैं मैखाने में।।'

  अफसोस कि उन्हें खुद भी नही एहसास कि  जिसे वो गजल कह रहे हैं वो ग़ज़ल है भी या नहीं। और उनके गिरोह के लोग दाद पर खाज़ भी देने लग जाते हैं।चलते चलते:-

   ग़ज़ल में बस मुहब्बत का दख़ल हो।

नहीं तो क्या ज़रूरी है ग़ज़ल हो।।

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