चले जाते हो कितनी बेरुखी से।

कभी ठहरा करो मेरी ख़ुशी से।।


तुम्हारे हुस्न और ये नाज़ नख़रे

ये सब हैं चार दिन की चांदनी से।।


तुम्हैं इस दर्जा कोई चाहता है

कभी सोचा भी है संज़ीदगी से।।


मुहब्बत है चुहलबाज़ी नही है

न खेलो यूँ किसी की ज़िन्दगी से।।


तुम्हारी हर अदा अच्छी है लेकिन

सभी कम हैं तुम्हारी सादगी से।।


तुम्हे अफ़सोस तो होगा यकीनन

चला जाऊँगा जिसदिन ज़िन्दगी से।।


इक ऐसा दर्द जो महसूस होगा

मगर तुम कह न पाओगी किसी से।।


चलो छोडो लड़कपन साहनी जी

बाज़ आ जाओ अब इस दिल्लगी से।।

सुरेश साहनी, कानपुर

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