जाने कब से थी रिश्तों में 

कड़वाहट ठंडक औ सीलन

पास सभी मिल कर बैठे तो

मानो इनको धूप मिल गयी।।


उपहारों में घड़ियां देकर

हमने बस व्यवहार निभाया

कब अपनों के साथ बैठकर

हमने थोड़ा वक्त बिठाया


जब अपनों को समय दिया तो

बंद घड़ी की सुई चल गई।।


कृत्रिम हँसी रखना चेहरों पर

अधरों पर मुस्कान न होना

सदा व्यस्त रहना ग़ैरों में

पर अपनों का ध्यान न होना


साथ मिला जब स्मृतियों को

मुरझाई हर कली खिल गयी।।


फिर अपनों को अस्पताल में

रख देना ही प्यार नहीं है

अपनेपन से बढ़कर कोई

औषधि या उपचार नहीं है


छुओ प्यार से तुम्हें दिखेगा

उन्हें जीवनी शक्ति मिल गयी।।


सुरेश साहनी,kanpur

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