देखो ना ये वही जगह है जहाँ मिला करते थे हम तुम मगर अब यहाँ बाग नहीं है आमों के वह पेड़ नहीं हैं महुवे की वह गन्ध नहीं है आज यहां अपना मकान है कितना ऊँचा कितना प्यारा अगर प्रेम हो रह सकता है जिसमें अपना कुनबा सारा यहीं कहीं पर हम दोनो ने एक दूसरे को चाहा था तुमने अपनी गुडिया को जब मेरे गुड्डे से ब्याहा था तुमको शायद स्मृत होगा इसी जगह पर खुश होते थे सींको के हम महल बनाकर और आज इस रंगमहल में वही नहीं है सूनी सूनी दीवारें हैं खुशी नहीं है वही नहीं है जिसको पाकर हम अनुबन्धित हो सकते थे जो सपने हमने देखे थे वह सपने सच हो सकते थे आज तुम्हारी आँखों मे कोई विस्मय है लोक-लाज से, शील-धर्म से प्रेरित भय है मै अवाक! होकर, औचक यह सोच रहा हूं तुम तुम हो या कोई और इसमे संशय है लिंग-भेद तो सम्पूरक है,आवश्यक है सत है, चित है, सदानन्द है सहज योग है, स्वयम सृष्टि है बचपन में हम अनावृत ही साथ पले है, साथ बढे़ है और आज परिधान सुशोभित देह-यष्टि है हम दोनो की पर समाज ने अपने वैचारिक स्तर से नग्न सत्य की किसी क्रिया को सोच लिया है जो शाश्वत है,ईस्वरीय है उसे अनैतिक मान लिया है आओ हम यह छद्म आवरण करे तिरो...
र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है तुम श्लील कहो, अश्लील कहो चाहो तो खुलकर गाली दो ! तुम भले मुझे कवि मत मानो मत वाह-वाह की ताली दो ! पर मैं तो अपने मालिक से हर बार यही वर माँगूँगा- तुम गोरी दो या काली दो भगवान मुझे इक साली दो ! सीधी दो, नखरों वाली दो साधारण या कि निराली दो, चाहे बबूल की टहनी दो चाहे चंपे की डाली दो। पर मुझे जन्म देने वाले यह माँग नहीं ठुकरा देना- असली दो, चाहे जाली दो भगवान मुझे एक साली दो। वह यौवन भी क्या यौवन है जिसमें मुख पर लाली न हुई, अलकें घूँघरवाली न हुईं आँखें रस की प्याली न हुईं। वह जीवन भी क्या जीवन है जिसमें मनुष्य जीजा न बना, वह जीजा भी क्या जीजा है जिसके छोटी साली न हुई। तुम खा लो भले प्लेटों में लेकिन थाली की और बात, तुम रहो फेंकते भरे दाँव लेकिन खाली की और बात। तुम मटके पर मटके पी लो लेकिन प्याली का और मजा, पत्नी को हरदम रखो साथ, लेकिन साली की और बात। पत्नी केवल अर्द्धांगिन है साली सर्वांगिण होती है, पत्नी तो रोती ही रहती साली बिखेरती मोती है। साला भी गहरे मे...
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