चाँद की रखवारियों में दिन गए। ख़्वाब में दिन रात तारे गिन गए।। नींद आंखों से गयी सुख चैन भी धीरे धीरे ख़्वाब सारे छिन गये।। इश्क़ की किस्मत में तन्हाई रही यार छूटे छोड़ कर कर मोहसिन गये।। चांदनी ने हाथ थामा ग़ैर का कब्र में हम रोशनी के बिन गए।। साहनी था बादाकश जन्नत गया नर्क में हिन्दू गया मोमिन गये।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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Showing posts from October, 2024
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आपने कब हमें क़रार दिया। जब दिया सिर्फ़ इन्तज़ार दिया।। सब दिया हमने जिसको प्यार दिया। दिल दिया जाँ दी एतबार दिया ज़ख़्म देकर हज़ार कहते हो आपने ख़ुद को हम पे वार दिया।। बारहा आपने किये वादे और धोखा भी बार बार दिया।। हम तो उजड़े हैं इक ज़माने से आपने कब हमें सँवार दिया।। जिसको सोचा था ज़िन्दगी देगा उसने जीते जी हमको मार दिया।। साहनी उम्र यूँ तवील लगी आरज़ू में इसे गुज़ार दिया।।
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चाहते हैं तुम्हें बहुत लेकिन तुम इसे प्यार वार मत कहना। देखते हैं तुम्हारी राह मगर तुम इसे इंतेज़ार मत कहना।। दिल ने जब तब तुम्हें सदा दी है और ख्वाबों में भी बुलाया है तेरी यादों में जाग कर तुझको अपनी पलकों पे भी सुलाया है इससे दिल को करार मिलता है तुम मग़र बेक़रार मत कहना।। तुम ख्यालों में पास आते हो रह के ख़ामोश मुस्कुराते हो बंद पलकों में कुछ ठहरते हो आँख खुलते ही लौट जाते हो ये जो छल है तुम्हारी आदत में तुम इसे कारोबार मत कहना।। सुरेश साहनी कानपुर
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जा चुके थे मगर लौट आये। फिर से अपने शहर लौट आये।। ग़म तेरे जैसे घर लौट आये। यूँ ही खुशियाँ अगर लौट आये।। वो कशिश हुस्न में तो नहीं थी इश्क़ का था असर लौट आये।। वो तो इस ऒर से बेख़बर थे हम ही लेके ख़बर लौट आये।। एक ठोकर लगी आशिक़ी में और हम वक़्त पर लौट आये।। आसमानों में क्यों हम न जाते जब कि फिर बालो पर लौट आये।।
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तुम वहां अक्सीर से रूठे रहे। हम हमारी पीर से रूठे रहे।। बादशाही को ख़ुदाई मानकर लोग बस जंज़ीर से रूठे रहे।। बात तब थी रोकते बुनियाद को सब महज़ तामीर से रूठे रहे।। यूँ भी इतना हक़ रियाया को नहीं आप कब जागीर से रूठे रहे।। वो मुक़द्दर हाथ आया ही नहीं हम कहाँ तदबीर से रूठे रहे।। तुम ने सर पटका न हो दीवार पर हम मगर प्राचीर से रूठे रहे।। तुम जहाँ परवाह के मोहताज़ थे हम वहीं तौक़ीर से रूठे रहे।। आईने को तुम न समझे उम्र भर अपनी ही तस्वीर से रूठे रहे।। साहनी हर हाल में था कैफ में और तुम तक़दीर से रूठे रहे।। अक्सीर/ रामबाण औषधि, तक़दीर/भाग्य ख़ुदाई/ईश्वरीय, तामीर/निर्माण, तदबीर/कर्म प्राचीर/दीवार, तौक़ीर/सम्मान, कैफ़/आनंद सुरेश साहनी अदीब Suresh Sahani कानपुर
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कैसे कह दें अम्मा हमको छोड़ गयी थीं ले जाकर श्मशान घाट पर अग्नि तिलांजलि किसने दी थी फिर मरने से पहले भी तो अम्मा कितनी बार मरी थीं केवल माँ अपने रिश्तों को मर मर कर जीवन देती है वे अपने जो समय समय रिश्तों को डसते रहते हैं तुम्हे पता है किसी प्रसव में नया जन्म होता है माँ का सोचो सोचो हमें जन्म दे अम्मा कितनी बार मरी थीं तिनकों से इक नीड़ बनाना इतना भी आसान नहीं है अम्मा और पिता दोनों ने टूट टूट कर घर जोड़ा है अक्सर उनके अरमानों पर पानी भी फेरा है हमने कई बार अम्मा के सपनों को हम सब ने ही तोड़ा है पाई पाई जोड़ गाँठ कर जिन्हें संजोया था अम्मा ने उन्हें टूट जाने पर हमने अम्मा को मरते देखा है किसने बोला देह छोड़ना ही माँ का मरना होता है माँ बच्चों की ख़ातिर जीवन भर तिल तिल मरती रहती है अक्सर ऐसा भी होता है जिसे सहेजा हो इक माँ ने उस आँगन में बंटवारे की अगर कोई दीवार उठे तो ऐसे में अपने जीते जी वह माँ भी मर ही जाती है अच्छा ही है मेरी माँ ने ऐसा कोई दंश न झेला पर अम्मा की सुधि लेने में कुछ तो हमसे चूक हुई थी
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ये न पूछो कैसे घर चलता रहा। तुम गये फिर भी सफ़र चलता रहा।। उम्रभर ग़म का कहर चलता रहा। कारवाँ खुशियों का पर चलता रहा।। जैसे चलता है दहर चलता रहा। हर कोई अपनी डगर चलता रहा।। ज़िन्दगी के ज़ेरोबम कब कम हुये वक़्त से ज़ेरो-ज़बर चलता रहा।। राब्ते तो बेतकल्लुफ ही रहे पर तकल्लुफ उम्र भर चलता रहा।। मरहला था ज़िन्दगी का हर ठहर यों भटकना दरबदर चलता रहा।। मौत ने कब इत्तिला दी जीस्त को साहनी भी बेख़बर चलता रहा।। सुरेश साहनी कानपुर
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ख़्वाब खयाली का अड्डा कह सकती हो। गुड़िया हो मुझको गुड्डा कह सकती हो।। घर की मोटा भाई तो सच में तुम हो हाँ मुझको जेपी नड्डा कह सकती हो।। साथ तुम्हारे सब भैया कह देते हैं तुम मुझको बेशक़ बुड्ढा कह सकती हो।। टिड्डी दल सा छाप लिया है सालों ने तुम चाहो मुझको टिड्डा कह सकती हो।। हम निरीह हैं हमी विलेन कहलाएंगे तुम पर है कितना बड्डा कह सकती हो।। सुरेश सुरेश साहनी कानपुर
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बीती सुधियों के साथ अभी जगने की फुर्सत किसको है कुछ देर मुझे जी लेने दो मरने की फुर्सत किसको है।। दो-चार मुहब्बत के आँसू रो लूँ तुमको आपत्ति न हो अपनी खुशियों में पागल हो हँसने की फुर्सत किसको है।। ये पोखर ताल तलैया वन उपवन मजरे सब अपने हैं वरना सागर तक जाना है रुकने की फुर्सत किसको है।। आनन्द दायिनी पीड़ा को जी लेने में कितना सुख हो पर आपाधापी के युग मे सहने की फुर्सत किसको है।।...... सुरेश साहनी, कानपुर
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हर फ़न में माहिर हो जाना चाहेंगे। बेशक़ हम नादिर हो जाना चाहेंगे।। कितना मुश्किल है जीना सीधाई से कुछ हम भी शातिर हो जाना चाहेंगे।। दरवेशों की अज़मत हमने देखी है तो क्या हम फ़ाकिर हो जाना चाहेंगे।। ख़ुद्दारी गिरवी रख दें मंजूर नहीं बेहतर हम मुनकिर हो जाना चाहेंगे।। वो हमको जैसा भी पाना चाहेगा वो उसकी ख़ातिर हो जाना चाहेंगे।। यार ने जब मयखाना हममें देखा है क्यों मस्जिद मन्दिर हो जाना चाहेगे।। इश्क़ हमारा तुमने शक़ से देखा तो टूट के हम काफ़िर हो जाना चाहेंगे।। साहनी
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स्नेह से हम बुलाये जाते हैं। मूर्तियों सम बिठाये जाते हैं।। अब सुखनवर जो पाये जाते हैं। सिर्फ़ अपनी सुनाये जाते हैं।। किस तकल्लुफ़ से आजकल रिश्ते आप हम सब निभाये जाते हैं।। आप ने याद कर लिया जैसे लोग यूँ भी भुलाये जाते हैं।। आप गुज़रे इधर से मुँह मोड़े इस तरह तो पराये जाते हैं।। किसलिये हम करें गिला उनसे ग़ैर कब आज़माये जाते हैं।। गमज़दाओं की कौन सुनता है फिर भी हम गुनगुनाये जाते हैं।। साहनी कानपुर वाले
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मन मरुथल क्या अश्रु बहाता सजल नयन कितना मुस्काते बहरे श्रवण व्यथा सुनते कब मूक अधर क्या पीर सुनाते........ इधर हृदय के अंतःपुर में सूनेपन ने शोर मचाया नीरवता थी मन की चाहत पर तन को कोलाहल भाया इन्द्रिय अनियंत्रित होने पर मन की शान्ति कहाँ से पाते...... सीमित श्रवण हुये माया वश अनहद नाद सुनें तो कैसे दास वासनाओ का तन मन सुख सन्मार्ग चुने तो कैसे सहज सदा आनंदित रहते मन से अगर विमुख ना जाते....... सुरेश साहनी, कानपुर